शुक्रवार, सितंबर 23

अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो....सर्जना शर्मा



अस्पताल के गलियारे में वो मुझे यदा कदा टहलते मिलतीं, छोटा सा कद, भारी भरकम शरीर हम दोनों की नज़रें मिलती लेकिन संवाद कोई नहीं होता. एक सुबह जब मैं नर्सिंग स्टेशन से नर्स को बुला कर लौट रही थीं तो उन्होनें पूछा आपका कौन  दाखिल है ? मुलायम, मीठी आवाज़  में आत्मीयता थी । मैंने बताया मेरी मां दाखिल है और उनकी सर्जरी होगी । उन्होनें बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाया, बोलीं- मेरी भी सर्जरी हुई है । एक हर्निया की और दूसरे यूटरेस निकलवाना पड़ा । बहुत तकलीफ में थी पांच साल से । मैनें पूछा इतनी तकलीफ क्यों बरदाश्त की, पहले क्यों नहीं करा लिया ? कहने लगीं मेरी उम्र ही क्या है केवल 37 साल । मेरी दो बेटियां है सोच रही थी एक बेटा हो जाए लेकिन भगवान ने सुनी ही नहीं । अपनी सोच के अनुसार मैनें उन्हें तसल्ली दी और कहा क्या फर्क पड़ता है, आजकल बेटी हो या बेटा ।

उनकी बड़ी बड़ी आंखों में आंसू भर आए --फर्क क्यों नहीं पड़ता पड़ता है हमारी जाति में तो बेटे की बहुत अहमियत है । मेरे  भी चार भाई हैं, मेरे पति तीन भाई हैं, बाकी दो भाइयों के बेटे हैं, मेरी ननदों के भी बेटे हैं.  हम बनिए हैं हमारे समाज में बेटा होना ज़रूरी है । समाज को छोड़िए अपनी सोचिए आपको फर्क नहीं पड़ना चाहिए । उनकी आंखों से आंसू बहने लगे मुझे भी फर्क पड़ता है , बहुत फर्क पड़ता है । कल को मेरी बेटियों का क्या होगा उनका तो पीहर ही नहीं रहेगा. आप जानती हैं ताऊ चाचा के बेटे कौन किसी के अपने भाई ही अपने होते हैं । अब मुझे देखो मेरे चार भाईयों से मेरा पीहर हरा भरा है, बार-त्यौहार को मेरे भाई भतीजे आते हैं, मैं अपने मायके जाती हूं ।  वो दलीलें पर दलीलें देती जा रही थीं । अब मैनें चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी उनका मन बहुत आहत था मैं उन्हें और दुखी नहीं करना चाहती थीं उनकी मनस्थिती किसी की बात सुनने की नहीं लग रही थी । शायद वो अपने मन का भार हल्का करना चाह रही थीं, ये सब बातें शायद वो अपनी देवरानी , जेठानी या ननद से नहीं कहना चाहती थीं...

कई बार किसी अपने के सामने अपने दिल की बात कहने में हमें संकोच होता है और किसी बिल्कुल अंजान के सामने हम अपना दिल हल्का कर लेते हैं । फिर वो मेरी मां से मिलने भी आयीं, मेरी मां ने भी उन्हें समझाने की कोशिश की, लेकिन एक बेटा ज़रूर होना चाहिए, इस के पक्ष में उनके पास अकाट्य तर्क थे ।

उनकी सोच के लिेए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता परंपरागत परिवार में पालन पोषण पारंपरिक सोच और बेटे को वंश का वाहक माना जाना  इसके कारण हैं। बेटे की मां का रूतबा ससुराल में उस बहु से ज्यादा होता है जिसके केवल बेटियां होती हैं । ससुराल में अपनी स्थिती मज़बूत बनाने के लिेए भी महिलाओं के लिए   बेटे सबसे बड़ा माध्यम होते हैं । जिन बेटों के लिए कोख में ही कन्या भ्रूण हत्याएं की जा रही हैं क्या वो सचमुच मां बाप के बुढ़ापे का सहारा बनते हैं । बहनों के लिए मायके के दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं ? अगर इस बारे में सर्वे कराया जाए तो परिणाम उन महिलाओं के लिए निराशाजनक होंगें जो बेटों के लिए अ्काट्य तर्क देती हैं । इसके अनेक उदाहरण आप सबके पास भी होंगें । मैं आपको एक ताजा़ उदाहरण देती हूं।

अस्पताल में मेरी बीजी जिस कमरे में हैं उन्हीं के साथ वाले बेड़ पर एक पंजाबी बुजुर्ग महिला भर्ती हैं । उनके साथ अस्पताल में उनकी सेवा के लिेए ज्यादतर उनकी बेटियां ही रहती हैं । विवाहित और अविवाहित । अपनी मां को बेडपैन देना , उल्टी आदि साफ करना सब बेटियां ही कर रही हैं । जबकि उनके बेटे बहू भी हैं । मैनें उन्हें कईं बार कहते सुना --" जै मेरियां धीयां ना होंदियां ते मेरा की होंदा ।"(अगर मेरी बेटियां ना होतीं तो मेरा क्या होता )
                                         
बेटा होने पर बेटियों के लिए मायके के दरबाज़े खुले ही रहेंगें इसकी भी क्या गारंटी है । मेरे बचपन की सहेली है स्कूल के दिनों से एक साथ पढ़े उसकी छोटी बहन मेरी छोटी बहन की सहपाठी थी । पंजाब में उनका बड़ा ज़मींदारा था, आठ गांव के मालिक थे । हम चारों बहनों की तरह रहते । उनके बीब्बी पिता जी हमारे लिए बीब्बी पिता जी और हमारे बीजी पापा जी उनके बीजी पापा जी । उनके दो भाई ,दोनों बहनों से बड़े । दोनों भाइयों की  मामूली घरों की लडकियों से इसलिए शादी की गयीं की, कायदे से रहेंगीं । उनके कुछ गांवों की ज़मीन शहर बसाने के लिए एक्वायर की गयी । करोड़ों रूपया मुआवज़ा मिला । पिता जी ने दोनों बेटियों को मुआवज़े में से 30 - 30 लाख रूप दे दिया । बस यहीं से रिश्ते बिगड़ गए , भाभियों ने घोर विरोध किया , भाइयों की क्या हिम्मत की अपनी पत्नियों की बात का विरोध करें । इसी बात को लेकर क्लेश इतना बढ़ा कि बीबी पिता जी को विशाल घर छोड़ कर किराए के मकान में रहना पड़ा । और दोनों बहनों की घर में एंट्रीं बंद ।

ना तीज ना त्यौहार । जब सारे समाज ने थू थू किया तो उन्हें माता पिता को घर वापस लाना पड़ा । क्योंकि पूरे इलाके में पिता जी का सामाजिक रूतबा था । लेकिन बहनों के लिए घर के दरबाज़े बंद हैं । अगर बहनें अपनी पर उतर आतीं और बराबर के हिस्से के लिए अदालत चलीं जातीं तो भाई भाभियों को लेने के देने पड़ जाते। पिर लाख तो क्या करोड़ों से हाथ धोने पड़ते और मौजूदा संपत्ति में बराबर का हिस्सा भी देना प़ड़ता । लेकिन दोनों बहनें अब भी अपने भाइयों को दिल से प्यार करती हैं और कहतीं है जायदाद के लिए कभी अदालत नहीं जाएंगीं । अपने आसपास आप ना जाने कितने ऐसे किस्से रोज़ घटते देखते होंगें लेकिन फिर भी बेटों की चाह कम नहीं होती । हरियाणा में क्या हालत पैदा हो चुके हैं ये तो खबरों में हम और आप पढ़ते ही रहते हैं । दूसरे राज्यों से शादी के लिए लड़कियां खरीद कर लायी जा रही हैं । 
                                                              
 अब भी समाज ने सोच नहीं बदली तो परिणाम भयंकर होंगें । बेटे और बेटियां दोनों ही होंगें तो आबादी का संतुलन बना रहेगा । बेटी ना हो केवल बेटे ही हों ये सोच बदलनी होगी । ये याद रखना  है कि बेटे के लिए बहू बन कर किसी दूसरे की बेटी आपके घर में आएगी । और आपकी बेटी किसी के घर दुल्हन बन कर जाएगी । इसलिए कन्या भ्रूण की कोख में ही  हत्या ना करें उसे दुनिया का उजाला देखने दें, वो आज आपके घर की रौनक तो कल किसी के धर के आंगन की शोभा बनेगीं ।

रविवार, सितंबर 18

हंसी हंसी की बात है...सर्जना शर्मा



जो आदमी हमेशा खिला-खिला रहता है...हर वक्त हंसता रहता हो उसे हंसमुख कहते हैं...

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लेकिन जिस आदमी का थोबड़ा हमेशा फूला रहता हो...हंसी हमेशा के लिए बंद हो गई हो उसे क्या कहते हैं...

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उसे कहते हैं........HUS...BAND


 

रविवार, सितंबर 11

गणपति उत्सव...पति का सवाल पत्नी से...सर्जना शर्मा

मुंबई में गणेश उत्सव की धूमधाम के बीच एक पति ने पत्नी से कहा...




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काश मैं भी गणपति होता...फिर तुम मुझे बैठाकर कैसी खातिरदारी करती...दिन रात पूजा करती...तरह तरह के मोदकों का भोग लगवाती...

पत्नी...वाकई कितना अच्छा होता, मेरे लिए भी....हर साल नया पति...फिर विसर्जन...