बुधवार, मई 7

2014 चुनाव में क्या-क्या पहली बार?


2014 का आम चुनाव पिछले आम चुनावों से कई मायनों में अलग है। इस चुनाव की अनेक हाइलाइट्स है। पहली बार आम चुनाव में देश के प्रधानमंत्री का कोई अस्तित्व नहीं दिखा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नयी सरकार के गठन से पहले ही सुर्खियों से गायब हो गए। दस साल तक देश के प्रधानमंत्री पद पर रहने वाले मनमोहन सिंह को कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार से बाहर ही रखा। इससे अच्छे तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ही थे जिन्होनें अल्पमत और अल्पदिनों की सरकार होने के बावजूद जम कर चुनाव प्रचार किया था। शायद मनमोहन सिंह को इसका मलाल भी नहीं होगा। उनके पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब The accidental prime minister के अनुसार मनमोहन सिंह ने कभी चाहा ही नहीं कि मीडिया में उन्हें गांधी परिवार से ज्यादा तरजीह दी जाए या वो राहुल गांधी से ज्यादा सुर्खियां बटोरें।



पहली बार ऐसा हुआ कि किसी दूसरी पार्टी के नेता ने किसी शहीद का नाम ले लिया तो उस पर हंगामा खड़ा हो गया। पहली बार ऐसा हुआ कि देश पर अपनी जान लुटाने वाले वीरों को भी मज़हबों में बांट दिया गया। शहीद भी तेरे शहीद और मेरे शहीद हो गए। इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है? चुनाव प्रचार का स्तर गिरने की सभी सीमाएं इस बार पार हो गईं। देश की रक्षा में हर समय हर पल तत्पर रहने वाली सेना को चुना प्रचार में ऐसे घसीटना दुर्भाग्यपूर्ण है। 

पहली बार ऐसा हुआ कि पूरा चुनाव एक व्यक्ति के आसपास सिमट गया। सियासी दलों की लड़ाई के बजाए व्यक्ति विशेष, की लड़ाई बन गयी। चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी हो गया। सोशल मीडिया का सियासी दलों ने जम कर इस्तेमाल किया तो आम लोगों के लिए भी ये चुनावी अखाड़ा बन गया। सोशल मीडिया में भी पूरी तरह खेमेबंदी। मोदी समर्थक और मोदी विरोधी खेमे में इतना ज़बरदस्त मुकाबला कि पूछो मत कौन किसके खिलाफ कितना ज़हर उगलता है इसमें भी गला काट प्रतियोगिता। हां आम आदमी पार्टी के समर्थक भी बहुत है लेकिन वो रेस में कुछ पिछड़े से लगे (दिल्ली विधानसभा चुनाव की तुलना में)।

सबकी खबर लेने वाले मीडिया की साख इस बार दांव पर लगी। मीडिया को सोशल साइट्स पर सबसे ज्यादा बुरा भला कहा जा रहा है । यहां तक कि मीडिया भी आपस में बंटा नज़र आ रहा है। विशेष कर नरेंद्र मोदी और राज ठाकरे के इंटरव्यू पर पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों की करारी टिप्पणियां मीडिया की साख पर बट्टा लगा रही हैं। मीडिया से जुड़ी साइट्स पढ़िए, वहां पत्रकारों को सबसे ज्यादा भला बुरा उनकी अपनी ही बिरादरी कह रही है। सियासी दलों के चुनाव प्रचार से मुख्य मुद्दे और सामाजिक सरोकार गायब हैं तो मीडिया से भी गायब हैं। नेता मुद्दों से भटक कर निजी आरापों के दलदल में फंस गए हैं । चुनाव प्रचार का इतना घटिया स्तर अपनी याद में मैनें कभी नहीं देखा । 


मीडिया को कटघरे में इस तरह पहली बार खड़ा किया गया। हां सबसे ज्यादा अगर किसी की रिपोर्टिंग लोगों ने पसंद की तो एनडीटीवी के रवीश कुमार की। रवीश भी अगर एयरकंडीशंड स्टूडियो में बैठ कर या फिर अलग अलग जगहों पर चुनावी मुकाबले करवाते तो उनकी भी यही गत होती। रवीश ने चुनावी रिपोर्टिंग को एक नया रूप दिया। 
आप को इस चुनाव में पहले चुनावों से क्या अलग और अनोखा दिखा आप भी बताएं । ये मेरा निजी आकलन है । आपने भी बहुत सी बातें इन चुनावों में नोट की होगी प्लीज़ सबके साथ शेयर करें . अब तो चुनाव आखिरी दौर में चल रहा है ।