रविवार, जुलाई 12

  भगवान जगन्नाथ जी का नबकलेवर – भगवान भी करते हैं कायाकल्प


             बंगाल की खाड़ी के तट पर बसी पुरूषोत्तम पुरी में भगवान विष्णु पुरूषोत्तम के नाम से विराजते हैं . यहां उनका रंग ,उनका रूप , उनकी मूर्ति देश के सभी मंदिरों से भिन्न है । ये देश का एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भगवान का विग्रह लकड़ी का और अधूरा है . और यहां भगवान अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा और सुदर्शन के साथ हैं । सनातन परंपरा ये है कि एक बार मंदिर में जिस विग्रह की स्थापना हो जाए उसे गर्भगृह से हटाया नहीं जाता है । लेकिन पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर और इसकी परंपराएं अनोखी हैं । यहां भगवान साल में एकबार  दस दिन के लिए अपने गर्भ गृह से निकल कर अपनी मौसी रानी गुंडीचा के घर जाते हैं । तीनों भाई बहन भव्य और दिव्य रथों पर सवार होकर अपनी मौसी के घर जाते  हैं इसलिए इसे रथयात्रा भी कहा जाता है ।
                         जगन्नाथ मंदिर की एक और अनोखी परंपरा है भगवान का नवकलेवर जिसे स्थानीय भाषा में नबकलेवर कहते हैं । नया कलेवर यानि कायाकल्प । भगवान जो अजर अमर अविनाशी हैं उनका कायाकल्प कैसे हो सकता है ? सवाल आप सबके मन में ज़रूर आएगा । लेकिन पुरी में भगवान के नवकलेवर की ये परंपरा बहुत रोचक और बहुत कठिन है । भगवान जगन्नाथ , उनके बड़े भाई बलभद्र , बहन सुभद्रा और सुदर्शन जी का नवकलेवर तब होता है जब दो आषाढ़ मास आते हैं । इस साल अधिक आषाढ़ मास है । अधिक मास को मल मास और पुरूषोत्तम मास भी कहते हैं । आषाढ़ मास में ही नवकलेवर इसलिए किया जाता है क्योंकि भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा आषाढ़ महीने के शुक्लपक्ष की दिव्तिया को आरंभ होती है । और आषाढ़ एकादशी को समापन होता है । जब दो आषाढ़ मास होते हैं तो नयी मूर्तियां बनाने का समय मिल जाता है । इसबार  भगवान जगन्नाथ का नवकलेवर है । इससे पहले 1996 में नवकलेवर हुआ था ।
            नवकलेवर की पूरी प्रक्रिया बहुत रोचक है । पिछले चार बार से जो नवकलेवर की पूरी प्रक्रिया के प्रमुख रहे हैं रामकृष्णा दैतापति उनके अनुभव बहुत ही आलौकिक हैं जिन्हें वो सबके साथ साझा नहीं करना चाहते । असल में नवकलेवर के लिए नीम के वृक्ष की खोज में जंगलों में जाना पड़ता है वो भी नंगें पांव , उस पर शर्त ये भी कि किसी दूसरे के हाथ का बना खाना नहीं खाना । श्री रामकृष्णा दैतापति शबर जनजाति से हैं । शबर भगवान जगन्नाथ को अपना भाई मानते हैं । रथयाथा से लगभग दो पखवाड़े पहले भगवान की सेवा का पूरा कार्यभार  इनके हाथों में आ जाता है । और पूरे एक महीने दैतापति ही भगवान की  सेवा में रहते हैं ।
                 रामकृष्ण दैतापति ही इस बार भी नीम के वो चार आलौकिक वृक्ष खोज कर लाए जिनसे भगवान जगन्नाथ , बलभद्र , देवी सुभद्रा और भगवान सुदर्शन के विग्रह बनाए जाते हैं । जिस साल में नवकलेवर होता है उस साल रामनवमी के दिन 20 दैतापति सरकारी ताम झाम के साथ आलौकिक नीम के वृक्षों की खोज में पैदल यात्रा पर निकलते हैं । सबसे पहले दैतापति अपनी कुलदेवी मंगला देवी के मंदिर जाते हैं जो उड़ीसा के काकटपुर में है। यहां दैतापति निर्वस्त्र हो कर पूजा करते हैं । श्री रामकृष्ण दैतापति का मानना है कि बच्चा केवल अपनी मां के सामने निर्वस्त्र हो सकता है । काकटमंगला देवी आजतक रामकृष्ण दैतापति को सपने में निर्देश देती आयी हैं कि उन्हें किस दिशा में नीम के वृक्षों की खोज में निकलना है । काकट मंगला देवी से निर्देश लेकर खोज यात्रा आगे बढ़ती है ।
            किसी भी नीम के वृक्ष  से भगवान का नवकलेवर हो सकता है ऐसा नहीं है । जिससे नवविग्रह बनाए जात हैं  वो वृक्ष विशेष होते हैं इनकी 11 पहचान होती हैं ---  ये वृक्ष जंगल के पूरे इलाके में सबसे लंबा होगा, इसके नीचे नाग और उपर बूढ़ा सांप रहता है । वृक्ष पर कोई पक्षी नहीं बैठता । इस पर शंख , चक्र पद्म , गदा बनी होती है पेड़ प्राची नदी के आस पास के जंगलों में पाए जाते हैं । इनके पास श्मशान और तुलसी का पौधा होता है ।
                        सभी चारों विग्रह नीम के एक ही वृक्ष से नहीं बनाए जा सकते । भगवान जगन्नाथ के वृक्ष का रंग काला , बलभद्र का सफेद , देवी सुभद्रा का पीली रंगत वाला और भगवान सुदर्शन का लाल रंगत लिए होता है ।
                     जब ये वृक्ष मिल जाते हैं तो इनके नीचे तीन दिन तक घी और चावल की आहुति से  यज्ञ किया जाता है तीन दिन तक दैतापति अन्न जल ग्रहण करना तो दूर  अपना थूक भी गले से नीचे नहीं करते । यज्ञ के दौरान वृक्ष के नीचे रहने वाला सांप बाहर निकल आता है । और ये किसी को कुछ नहीं कहता । इनसे किसी को भय भी नहीं लगता । रामकृष्ण दैतापति जब 19 वर्ष के थे तभी से उन्हें नवकलेवर के वृक्ष खोज कर लाने का सौभाग्य मिल रहा है । उनके पास सुनाने के लिए बहुत सारे रोमांचक  प्रसंग हैं वो बताते हैं जो वृक्ष काटा जाता है उसकी सारी लकड़ी साथ नहीं ले जाते जो लकड़ी बच जाती है उसे ज़मीन में दबा दिया जाता है यदि कोई भूल से भी इस लकड़ी को अपने साथ अपने घर ले जाता है तो सांप उसके घर तक उसका पीछा करते हैं और उसी के घर में घूमते रहते हैं । फिर उस इंसान को लकड़ी वहीं वापस ले जानी पड़ती है । इसलिए कोई भी लकड़ी घर ले जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता ।
                   इस बार चारों वृक्ष खोजने में 54 दिन लगे भगवान जगन्नाथ के विग्रह के लिए उड़ीसा के जगतसिंह पुर जिले के रघुनाथपुर के जंगलों में नीम का वृक्ष मिला , भाई बलभद्र के विग्रह का वृक्ष भी जगतसिंह पुर के सरला गांव के आसपास मिला देवी सुभद्रा का भी इसी जिसे के अडंग गांव के जंगलों में मिला। भगवान सुदर्शन का वृक्ष मिला भुवनेश्वर के  पास घड़कुंटनी में ।
चारों वृक्षों को विधि विधान से पूजन करके काट कर श्री जगन्नाथपुरी लाया जाता है । रामकृष्ण दैतापति बताते हैं कि इस पूरी यात्रा के दौरान नाग उनकी और उनके पूरे दल की रक्षा करते हैं और पुरी तक साथ भी आते हैं । जब तक नीम के वृक्ष श्री मंदिर के भीतर सुरक्षित नहीं पहुंच जाते तब तक नाग साथ रहते हैं ।
                    मंदिर के भीतर रात के समय गुप्त रूप से दैतापति चारों विग्रहों का निर्माण करते हैं । दैतापतियों के अलावा कोई और मूर्ति निर्माण का साक्षी नहीं बन सकता । जब नवकलेवर विग्रह बन जाते हैं तो आषाढ़ महीने की अमावस को नए और पुराने विग्रहों को आमने सामने रखा जाता है । पुराने विग्रहों से ब्रहम (प्राण ) की स्थापना नए विग्रहों में आधी रात के समय अति गुप्त रूप से की जाती है । और पुराने विग्रहों को मंदिर के विशाल परिसर में बने कोयला बैकुंठ में समाधि दे दी जाती है । इस बार 15 जून की रात को सारी प्रक्रिया पूरी की गयी ।
          कोयला बैकुंठ में विग्रहों की समाधि के बाद दैतापति वैसे ही 13 दिन का शोक मनाते हैं जैसे हम अपने किसी प्रियजन की देहयात्रा पूरी होने पर मनाते हैं । और सभी श्राद्ध कार्यों के बाद तेरहवीं के बाद शुद्धिकरण के बाद दैतापति नव विग्रहों की पूजा अर्चना और सभी सेवा निजोग आरंभ कर देते हैं ।
नवकलेवर की सारी प्रक्रिया पुरी के  श्री मंदिर में पूरी हो चुकी है नए कलेवर के साथ भगवान मंदिर के गर्भ गृह में रत्नसिंहासन पर विराजमान हो चुके हैं । और बस अब प्रतीक्षा है विश्वप्रसिद्ध परम पावन रथ यात्रा की जो  17 जुलाई से आरंभ होगी ।