सोमवार, फ़रवरी 14

मैं चित्रांगदा हूं...

सर्जना शर्मा
 
 अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पास आ रहा है, बड़े बड़े अंतरराष्ट्रीय सेमीनार , संगोष्ठियां , पुरस्कार समारोह होंगें । महिलाओं को समान अधिकार देने की पैरवी की जायेगी। कहना ना होगा इंटरनेशनल वूमैन डे यानि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पश्चिम की आधुनिक अवधारणा और देन है । मेरी बहुत सी उच्चपदस्थ  महिलाओं को अंतराष्ट्रीय महिला दिवस खोखला लगता है । उनका मानना है एक दिन महिला दिवस मना कर हासिल क्या होता है क्या साल के बाकी दिनों में भी महिलाओं को अधिकार नहीं मिलना चाहिए? कुछ ऐसे नामों को पुरस्कार के लिए चुन लिया जाता है जो मीडिया के लिए अच्छी खबर  बनती हैं  । 
 महिला अधिकारों के लिए हमें पश्चिम की और देखने की ज़रूरत अब पड़ रही है । पश्चिम की जो वूमैन लिब की अवधारणा है वो हमारे समाज में सच कहूं तो फिट  नहीं बैठती ।  हो सकता है बहुत सो लोग मेरी इस राय से सहमत ना हो लेकिन ये मेरी निजी राय और सोच है । हमारे उनके सामाजिक परिवेश में बहुत अंतर है । हमारे यहां सामाजिक परिवेश और संस्कृति पश्चिम से अलग है । ऐसा नहीं है कि हमारे पास महिलाओं के समान अधिकारों या समाज में ऊंचे दर्जै की अवधारणा नहीं थी । अगर हम अपने प्राचीन और समृद्ध भारतीय इतिहास में झांकें तो हमें महिलाओं के अधिकारों के बारे में बहुत सी बातें पता चलेगीं । और आज भी हमारे वनवासी और कबीलाई समाज में मातृ प्रधान सत्ता है । उनके पास इतने अधिकार हैं, इतनी आज़ादी है कि  आधुनिक समाज में देखने को भी नहीं मिलेगी । वेदों , पुराणों और महाकाव्यों में भी महिलाओं के सशक्त चरित्र हैं । दिल्ली में चल रहे इंदिरा गांधी नेशनल  सेंटर फॉर आर्ट में आजकल  जय उत्सव चल रहा है । इसमें लोक परंपराओं में महाभारत  पर चर्चा विचार , लोक गायन , लोक नृत्य चल रहा है . देश विदेश से आए विशेषज्ञ लोक परंपरा की दृष्टि से महाभारत  पर अपने रिसर्च पेपर प्रस्तुत कर रहे हैं  । लोक परंपरा का जो महाभारत है वो वेद व्यास के महाभारत  से भिन्न है । उसकी कथाएं भिन्न हैं । महिला पात्रों को बहुत सशक्त  दिखाया गया है । उन्हें अपने तरीके से जीने की आजादी है । उनके पास आज की उच्च शिक्षित महिला से कहीं ज्यादा अधिकार हैं । और ये अधिकार कागज़ के पन्नों में ही नहीं है बल्कि देश के दूर दराज इलाकों से आए कलाकारों की टोलियों में महिलाओं की बराबर की भागीदारी भी इसका प्रमाण है। मेरी ऐसी बहुत  सी कलाकारों से मुलाकात हुई जो आदिवासी इलाकों में रहते हुए भी महाभारत  की महान विदुषियां हैं । कथा वाचन , गायन , वादन और नृत्य में पारंगत हैं । एक एक करके आपसे इनका परिचय करवाऊंगीं ।
  
  आज बात महाभारत की एक सशक्त पात्र चित्रांगदा की । चित्रागंदा महान योद्धा अर्जुन की पत्नी थी । वनवास के दिनों में अर्जुन घूमते घामते बिष्णु देश यानि वर्तमान मणिपुर पहंच गया । वहां चित्रांगदा से मुलाकात होती है ।चित्रागंदा मणिपुर के राजा चित्रवाहन की बेटी थी  दोनों एक दूसरे पर मोहित हो जाते हैं और विवाह करने का फैसला करते हैं । मणिपुर में चूंकि मातृ प्रधान समाज था जो कि आज भी है राजा ने शर्त रखी कि विवाह कर लो लेकिन मेरी बेटी तुम्हारे साथ नहीं जाएगी और ना ही उसकी संतान । क्योंकि उसकी संतान ही राज्य की उत्ताराधिकारी  बनेगी । अर्जुन शर्त मान लेते हैं और दोनों का विवाह हो जाता है । चित्रांगदा जानती है कि अर्जुन सदा उसके साथ नहीं रहेगा लेकिन वो इसके लिए रोती गाती नहीं है। कल क्या होगा इसकी चिंता नहीं करती है। वेद व्यास की महाभारत  की  चित्रांगदा  के व्यक्तित्व ने  गुरू रविंद्र नाथ टैगोर  को बहुत  प्रभावित किया उन्होनें चित्रागंदा  को एक स्वाभिमानी और ऐसी महिला के रूप में प्रस्तुत किया जिसका अपना एक अस्तित्व है उनकी मूल बांग्ला कृति का हिंदी अनुवाद भारत भूषण अग्रवाल ने हिंदी में बहुत सुंदर तरीके से किया है ।
 
चित्रागंदा अर्जुन को अपना परिचय देती है = 
 
                           मैं चित्रागंदा हूं !
 
                   देवी नहीं , न ही मामूली रमणी हूं मैं ।
 
                   पूजा करके  जिसे माथे चढ़ाओ ,वह भी नहीं हूं मैं  ;
 
                 अवहेलना से पालतू बना कर पीछे डाल दो , मैं वह भी नहीं ।
 
                यदि संकट के पथ पर मुझे पार्श्व   में रखो ,
 
                  दुरूह चिंता में भागीदार बना लो ,
 
               अपने कठोर  व्रत में यदि हाथ बंटाने की अनुमति दो ,
 
                         सुख -दुख की सहचरी बनाओ ---
                           
                            मेरा  परिचय तुम तब पाओगे ।        
                                                     
   हज़ारों वर्ष पहले लिखे गए महाकाव्य से गुरूदेव रविद्रनाथ टैगोर ने चित्रांगदा    के चरित्र की व्याख्या आधुनिक  स्त्री के संदर्भ में  की है। आज की स्त्री जो चाहती है बिल्कुल वैसा ही परिचय  । इक्कीसवीं सदी में भी स्त्री ना देवी बनना चाहती है और ना ही पालतू। बस उसे चाहिए बराबर की भागीदारी।                                                                                  


 

14 टिप्‍पणियां:

  1. टाइटल देखकर तो लगा कि आप वर्साटाइल अभिनेत्री चित्रांगदा सिंह के बारे में कुछ बताने जा रही हैं...पोस्ट पढ़ने के बाद माज़रा साफ़ हुआ...जय उत्सव की सिलसिलेवार रिपोर्टिंग करें तो ब्लॉगवुड को बिना वहां पहुंचे ही उसके आनंद की अनुभूति हो...

    जय हिंद...

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  2. bahut achchhi gyanvardhak post.khushdeep ji ne sahi kaha laga mujhe bhi yahi tha.

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  3. यदि संकट के पथ पर मुझे पार्श्व में रखो ,

    दुरूह चिंता में भागीदार बना लो ,

    अपने कठोर व्रत में यदि हाथ बंटाने की अनुमति दो ,

    सुख -दुख की सहचरी बनाओ ---

    मेरा परिचय तुम तब पाओगे ।

    सर्जना जी आज की नारी के संदर्भ मे चित्रांगदा का व्यक्तित्व प्रस्तुत करके आपने उसे एक दिशा प्रदान की है…………आज की नारी शायद अभी इस बात को नही जानती कि ये तो युगो से उसी का वर्चस्व सबने स्वीकार किया है मगर वो ही भुलावे मे जी रही है…………आप की ये श्रंखला ऐसी नारियो के प्रेरणास्त्रोत बने और वो अपने अस्तित्व को पह्चान सकें और आगे कदम बढाने मे सक्षम हो ……………एक बेहद सशक्त और उम्दा पोस्ट …………अब तो आगे की पोस्ट का इंतज़ार रहेगा।

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  4. सर्जना जी, आपके आलेख को पढ़कर एक बात ध्‍यान में आयी कि जब हम अपने पौराणिक और सांस्‍कृति पक्ष की बात करते हैं तो लोग कहते हैं कि वास्‍तविकता में आज महिला की स्थिति बदतर है। आप एक आलेख यूरोप में किया गया महिला आंदोलन के बारे में लिखे जिसमें बताएं कि वहाँ कैसे पादरी लोगों ने महिलाओं का जीना दूभर कर दिया था तब विमेन लिब की बात चली। तब शायद लोगों को समझ आए कि भारतीय महिला की स्थिति कितनी सुदृढ रही है और आज भी है।

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  5. aur adhik kya kahoon sabhi kuchhto anya tippani karon ne kah diya hai.aapki post ka intzar rahega...

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  6. इतिहास नायिका चित्रांगदा की जानकारी हेतु आभार.

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  7. इस पक्ष से अनिभिज्ञ था, दमदार संदर्भ व प्रस्तुति।

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  8. मेरी टिप्पणियां क्यों नहीं प्रिंट हो रही हैं ।

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  9. बहुत अच्छी प्रस्तुति ...शुभकामनायें आपको

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  10. @इक्कीसवीं सदी में भी स्त्री ना देवी बनना चाहती है और ना ही पालतू। बस उसे चाहिए बराबर की भागीदारी। सहमत हूँ आप की बात से, पर यहाँ सब नाम का देवी बनने को तैयार है किन्तु बराबरी की बात नहीं मान सकते है | चित्रांगदा के बारे में जानकर अच्छा लगा |

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  11. व्याख्या एवम् टीकायें ग्रन्थ, पात्र एवम् परिकल्पनाओं को जीवन्त बनाती है।

    रबीन्द्र जी एवम् चित्रांगदा के माध्यम से नारी पर एक अच्छा विमर्श!




    श्रीमती कुसुम जी ने पुत्री के जन्म के उपलक्ष्य में आम का पौधा लगाया

    श्रीमती कुसुम जी ने पुत्री के जन्म के उपलक्ष्य में आम का पौधा लगाया है।
    ‘वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर’ एवं सम्पूर्ण ब्लॉग परिवार की ओर से हम उन्हें पुत्री रूपी दिव्य ज्योत्स्ना की प्राप्ति पर बधाई देते हैं।

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  12. Atisunder jaankaari dene ke liye dhanyavaad.Vaastav me sahi jaankaari aur gyan milne se hi hamaari aankhe khul sakti hai.

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