(पोस्ट से पहले आपसे कुछ दिल की बात- कहते हैं इंसान दो परिस्थितियों में निशब्द हो जाता है। बहुत दुख में और बहुत खुशी में। और जब बहुत दुख में निशब्द हो जाता है तो बहुत समय लगता है उससे बाहर आने में। सितंबर 2011 के बाद मैनें कुछ नहीं लिखा। 2011 और 2012 में मेरी बीजी की लंबी बीमारी। अस्पतालों में दिन रात रहना और फिर 2012 में उनका हमसे सदा के लिए बिछुड़ जाना। सबको पता है हम सबको जाना है। लेकिन फिर भी ना जाने क्यों हमारा मन ऐसा है अपनों को अलविदा कहना नहीं चाहता। और फिर मेरी बीजी के जाने के बाद मेरे पैतृक परिवार में मानो नंबर लग गया। फरवरी 2012 से जून 2012 तक अपने चार प्रियजनों को अंतिम विदाई दी। मन को नार्मल होने में लंबा समय लगा। खैर लंबी कहानियां हैं आप सबको बोर नहीं करूंगी फिर से मन को बांध कर ब्लॉग लिखना शुरू कर रही हूं। मेरे बहुत से ब्लॉगर मित्र लगातार संपर्क में हैं । दुख सुख के साथी हैं। बहुतों से संपर्क टूट गया था। आप सबका भी कसूर नहीं है मैंने अपने दुख के बारे में कुछ लिखा भी नहीं ब्लॉग पर। आशा है आप मुझे भूले नहीं होंगें। एक बार मैं फिर आई हूं। आप मेरी इस पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देंगें तो मैं समझूंगी कि आप मुझे भूले नहीं हैं।- सर्जना शर्मा)
जशोदा बेन: सूनी सेज, गोद मोरी सूनी, मर्म ना जाने कोए
सूनी सेज गोद मोरी सूनी
मर्म ना जाने,
छटपट तड़फे प्रीत जिया की
ममता आसूं रोए,
ना कोई इस पार हमारा ना
कोई उस पार,
फिल्म तीसरी कसम का मुकेश का गाया ये गीत ना जाने कितनी महिलाओं के
दिल को छू लेता होगा, कितनी महिलाओं के आंखों
से आंसू बहते होंगे । गीत के बोल मार्मिक और उस पर मुकेश की आवाज़ का दर्द। जबसे बीजेपी
के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से बरसों पहले विलग हुई जशोदा बेन फिर से
सुर्खियों में आयीं है मेरे कानों में इस गीत के बोल गूंजते हैं और जशोदा बेन का
चेहरा। जशोदा बेन दशकों से गुमनाम जीवन जी रही थीं। नरेंद्र मोदी राजनीति के
विवादास्पद और चमकते सितारे बने तो जशोदा बेन भी यदाकदा खबरों में आने लगीं। और अब
जब मोदी ने वड़ोदरा से पर्चा भरते हुए अपने मैरिटल स्टेट्स को स्वीकार किया और
जशोदा बेन का नाम भरा तो मानो तूफान आ गया। मीडिया , नारीवादी
संगठन और सियासी दलों ने बावेला मचा दिया। लेकिन जो सबसे ज्यादा भुक्त भोगी है, जिसने
अपने जीवन के इतने साल विवाहिता होने के बाद भी अकेले गुजारे उसने तो एक शब्द नहीं
बोला, जुबान नहीं खोली । जशोदा बेन के लिए मेरे मन में
ममता और करूणा उमड़ कर आती है । बहुत से लोग मुझसे असहमत होंगें मुझे रूढ़िवादी औऱ
पुरातनपंथी भी कह सकते हैं। विशेषकर फैमिनिस्ट। वो अपनी जगह ठीक हो सकते हैं लेकिन
कभी जशोदा बेन के दर्द को समझने की कोशिश करें।
जशोदा बेन का नरेंद्र मोदी से तलाक
नहीं हुआ है। वो भले ही रहतीं एक सुहागिन की तरह हैं, लेकिन सरनेम मोदी इस्तेमाल
नहीं करतीं। जबकि अनेक प्रगतिशील फैमिनिस्ट महिलाएं नारी मुक्ति का दम भरती हैं, लेकिन
अपने जाने माने प्रतिष्ठित पतियों का सरनेम तलाक के बाद भी लगाए रखती हैं। यही
महिलाएं टेलिविज़न औऱ महिला पत्रिकाओं में नारी अधिकारों और मुक्ति पर बड़े बड़े
इंटरव्यू देती हैं। इनमें से कईं के नाम तो आप भी जानते ही होंगें लिखने की ज़रूरत
नहीं है। इनमें से एक नृत्यागंना ने तो मरते दम तक अपने पहले एक्टर पति का सरनेम ही
लगाए रखा। सैवी पत्रिका को दिए गए इंटरव्यू में उन्होनें यहां तक कहा था कि- चार
पांच पति तो मैं अपने खीसे में रख कर चलती हूं। कोई उनसे पूछे कि चार पांच पति
उनके खीसे में रहते थे तो फिर पहले पति का सरनेम क्यों नहीं छोड़ा। इस महिला ने ही
देश के जानेमाने उद्योग पति को जेल भिजवा दिया था, उनसे अपनी शादी की तस्वीरें
कोर्ट में पेश करके।
खैर छोड़िए, आती हूं उसी
पात्र पर जिसके तप और त्याग ने मुझे ये लेख लिखने को मजबूर किया। यानी जशोदा बेन। जशोदा
बेन मुझे सुप्रसिद्ध बांग्ला उपन्याकार शरत चंद्र चट्टोपाध्याय और गुरु रबीन्द्रनाथ
टैगोर के उपन्यासों की मानिनी, स्वाभिमानिनी, सदाचारिणी. तपस्वनी नायिका लगती हैं । इन दोनों महान बांग्ला
साहित्यकारों ने अपने उपन्यासों में जिन नायिकाओं का चित्रण किया है वो पूरी तरह
से काल्पनिक नहीं हो सकतीं। उन्होंने अपने आसपास ऐसे चरित्र देखें होंगें, उनका
दुख जाना होगा. उनका दर्द समझा होगा। और फिर उन्हें अपनी कलम से शब्दों में ढाला।
फिर चाहे परिणीता की ललिता हो , विराज बहू की विराज हो या
फिर विनोदिनी की विनोदिनी हो । ये नायिकाएं किसी ना किसी कारण से विवाहित
होने के बावजूद एकाकी जीवन व्यतीत करती हैं । लेकिन उनका आत्मसम्मान, सदाचार, संयमित जीवन, ममता, करूणा, दया स्नेह का खजाना दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है । जशोदा बेन भी मुझे
वैसी ही लगती हैं। विवाह हुआ लेकिन पति बच्चों गुहस्थी का सुख देखा ही नहीं। अपने
मायके में उन्होनें लोगों के सवालों को कैसे झेला होगा. उनके परिवार ने समाज को
क्या जवाब दिया होगा. इसका अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं ।
जशोदा बेन की तस्वीर मैंने
देखी- किसी भी मध्यमवर्गीय परिवार की सद्गृहस्थन जैसी, चेहरे पर जीवन के कठोर तप
की साफ छाप। जसोदा बेन पढ़ी लिखी हैं, सरकारी नौकरी करती हैं वो चाहतीं तो कभी भी
हंगामा खड़ा कर सकती थीं। लेकिन नहीं किया, मैं जानती हूं बहुत से लोग मुझसे कतई
सहमत नहीं होंगें। लेकिन मैनें अपने बचपन से अपने आसपास बहुत सी ललिताएं, विनोदिनी, विराज बहू औऱ जशोदा बेन देखी हैं। बचपन में तो समझ नहीं आता था
लेकिन जैसे जैसे उम्र बढ़ी, शरत चंद्र और रबीन्द्रनाथ टैगौर को पढ़ा, इन सबका जीवन
और कठोर तप समझ में आया । समझ में आया कि इनके चेहरे पर इतना नूर क्यों, संतों तपस्वियों जैसी चमक क्यों। चेहरे पर सौम्यता, शालीनता, ममता
और करुणा का भाव क्यों। अपने जीवन की कड़वाहट भुला कर दूसरों के जीवन में मिठास
घोलने का स्वभाव क्यों ।
नरेंद्र मोदी की पहचान
राजनीति में आने से पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक प्रचारक के रूप में थी । मोदी
विवाहित हैं या अविवाहित ये प्रश्न कभी उठा ही नहीं । सच कहूं तो उनसे मेरा
व्यक्तिगत परिचय रहा है जब वो संघ के प्रचारक थे । हम उन्हें एक विशुद्ध प्रचारक
के रूप में ही देखते थे और कभी ये विषय ना उठा और ना ही कोई मतलब था, इस मुद्दे पर
बात करने का। जब उन्हें गुजरात का मुख्यमत्री बना कर भेजा गया तो विरोधी खेमे और
शायद अपने ही खेमे के अंतुष्टों ने जशोदा बेन को खोज निकाला। वो सीधी सादी महिला
अचानक अखबारों की सुर्खियां बन गयीं । लेकिन चौदह साल के मुख्यमंत्री काल में
उन्होनें कभी ऐसा अवसर नहीं आने दिया जिससे नरेंद्र मोदी को नीचा देखना पड़े। वो चाहतीं
तो पूरा बदला ले सकती थीं। अब कुछ लोग ये भी कहेंगें कि नरेंद्र मोदी ने डराया
धमकाया होगा। वो कोई अनपढ़ महिला नहीं हैं जिन्हें धमकाया जा सके या जिनका मुंह
जबरन बंद किया जा सके ।
अब जब जशोदा बेन को
सावर्जनिक रूप से कानूनी रूप से पत्नी का दर्जा मिला तो भी ना वो खुश हुईं ना दुखी।
तटस्थ भाव। मीडिया तुंरत पहुंचा इस आस में कि कोई चटपटी खबर मिलेगी। लेकिन जशोदा बेन
ने बयान देना तो दूर मीडिया से मिलना भी उचित नहीं समझा । यानि निर्विकार
निर्लिप्त समभाव। ना खुशी का इज़हार, ना शिकायत । सोलह सत्रह बरस की उम्र से अब तक
एकाकी, आत्मस्वाभिमानी , शांत जीवन जी रहीं जशोदा
बेन ने मौन व्रत नहीं तोड़ा। कोई प्रतिक्रिया नहीं ।
जशोदा बेन जैसी अनेक
त्यागिनी, मानिनी, स्वाभिमानीनियों से इतिहास औऱ काव्य भरा पड़ा है। गुरू रबीन्द्रनाथ
टैगौर ने अपनी कृति काव्येर उपेक्षिता में ऐसे विरही एकाकी चरित्रों का बखूबी वर्णन किया है । सुप्रसिद्
कवि स्वर्गीय मैथिली शरण गुप्त ने साकेत में लक्ष्मण की पत्नी
उर्मिला की दशा का वर्णन किया है लेकिन कहीं भी दीन हीन नहीं दिखाया। पति से मिलने
की उत्कंठ चाह भी नहीं दिखायी। यशोधरा में मैथिलीशरण गुप्त ने महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा की
व्यथा का वर्णन है । राजकुमार सिद्धार्थ अपनी पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को सोता
हुआ छोड कर चले जाते हैं। सिद्धार्थ बाद में महान बने और महात्मा बुद्ध कहलाए।
अहिंसा, त्याग, तप और करूणा के प्रतीक बने लेकिन क्या किसी ने ये समझा कि
सिद्धार्थ को महात्मा बुद्ध बनाने के पीछे यशोधरा की भी तपस्या कम नहीं है । लेकिन
यशोधरा के मन के मलाल को गुप्त जी ने अपने शब्दों का रूप दिया है ---
सिद्धि हेतु स्वामी गए यह
गौरव की बात,
पर चोरी चोरी गए यही बड़ा
आघात...
नरेंद्र मोदी ने जशोदा
बेन से क्या कहा होगा घर कैसे छोड़ा होगा इसका अनुमान नहीं है । लेकिन जशोदा बेन
ने यशोधरा कि तरह ही अपने पति को उनके मनचाहे मार्ग पर चलने दिया । यशोधरा के पास
कम से कम एक पुत्र था राहुल। जिसके पालन पोषण का भार यशोधरा पर था। लेकिन जशोदा
बेन की कोई संतान भी नहीं है। पर यशोधरा भी इस स्थिति से बहुत प्रसन्न नहीं थीं। मैथिलीशरण
गुप्त के यशोधरा काव्य की कुछ पंक्तियों से लगता है कि यदि राहुल ना होता तो यशोधरा
आत्महत्या कर लेती --
सखी मुझको मरने का भी न
दे गए अधिकार,
छोड़ गए मुझ पर अपने
राहुल का भार...
श्री रामचरित मानस में
भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण को हमारे समाज में बड़े भाई के प्रति प्रेम, त्याग, अनुराग और श्रद्धा का
प्रतीक माना जाता है। भ्राता प्रेम का वो सबसे बड़ा उदाहरण हैं लेकिन अवध में
उर्मिला ने 14 बरस कैसे बिताए इसकी ज़रा
कल्पना कीजिए। उर्मिला को मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत में और गुरु रबीन्द्र नाथ
टैगौर ने काव्येर उपेक्षिता में बहुत ऊंचा दर्जा दिया है । उसके त्याग को लक्ष्मण से बड़ा
बताया है । इन दोनों कवियों ने उर्मिला के त्याग, तपस्या, ममता, करूणा, धैर्य,
संयम का सु्ंदर शब्दों में बहुत सम्मान के साथ वर्णन किया है ।
"हाय वेदनामयी उर्मिला एकबार तुम्हारा उदय
प्रात:कालीन नक्षत्र की तरह समेरू पर्वत हुआ था । इसके बाद दर्शन नहीं हुए लोग
तुम्हें भूल गए" - रबीन्द्रनाथ टैगौर
मैथिलीशरण गुप्त ने
उर्मिला को ऐसी विरहनी की तरह दिखाया है जो अपना दुख छिपा कर दिन रात अपने को
व्यस्त रखती है । अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ती है, लेकिन रहती ससुराल में ही
है। किसी से शिकायत नहीं करती किसी पर आरोप नहीं लगाती। यहां तक कि भगवान राम,
सीता और लक्ष्मण के वनवास का कारण बनीं अपनी सास कैकेयी से भी बुरा व्यवहार नहीं
करती। छोटी सी उम्र में त्याग और तपस्या की मूर्ति बन कर रहती है। मैथिली शरण
उन्हें बहुत ऊंचा दर्जा देते हैं-
मानस मंदिर में सती पति की प्रतिमा थाप ,
जलती सी उस विरह में बनीं
आरती आप ...
मुझे यहां भी जशोदा बेन का त्याग और तप उर्मिला से बड़ा लगता है ।
उर्मिला अपने ससुराल में तो रहती हैं। जशोदाबेन तो अपने मायके में अपने माता पिता
भाई भाभी के साथ रहतीं हैं । माता पिता तो नहीं रहे अब उनके भाई हैं जिन्होनें
मीडिया को बताया कि जशोदा अपने पति के लिए चार धाम यात्रा पर जा रही हैं। यदि
जशोदा बेन के भाई की बात को सच माना जाए तो जशोदाबेन के मन में अपने पति
नरेंद्र मोदी के लिए कोई दुर्भावना नहीं है। वो चाहती हैं कि उनके पति
प्रधानमंत्री बनें। जशोदा बेन जैसी महिलाओं को ऐसा जीवन जीने की कोई मजबूरी नहीं
है। वो चाहतीं तो अपनी खुशियां कहीं भी तलाश सकती थीं लेकिन उन्होनें त्याग तप और
संयम का मार्ग ही चुना । राज्य के मुख्यमंत्री की कानूनी रूप से पत्नी होने के
बाबजूद अपना अधिकार नहीं मांगा । शायद वो जानती हैं कि रिश्ते कानून से नहीं मन से
बनते हैं । भावनाओं से गढ़ते हैं ।
प्रगतिशील सोच रखने वाले हो सकता है जशोदा बेन के प्रति मेरी इस
ममता स्नेह को दकियानूसी मानें। लेकिन मेरी अपनी सोच है। मैंने पहले भी लिखा है कि
मैनें अपने बचपन से अपने आसपास ऐसी बहुत सी महिलाओं को देखा है, उनके बारे में भी
लिखूंगी । जिस गीत की पंक्तियों से मैनें ये पोस्ट शुरू की, उसी से समापन भी
करूंगी। पता नहीं तीसरी मंज़िल फिल्म में ये गीत राजकपूर पर क्यों फिल्माया गया। जबकि
इसमें नारी के मन का व्यथा औऱ दुख है। एक ऐसी महिला जिसका पति उसे दूर है कोई
संतान भी नहीं है। सूनी सेज गोद मोरी सूनी मर्म ना जाने कोए जशोदा बेन की भी यही
कहानी है । ये समापन नहीं है मैं आपका ऐसे और बहुत से चरित्रों से परिचय कराऊंगी।
जिन्हें मैंने देखा है, जिनका जीवन दूसरों के लिए आदर्श है।
मार्मिक भावभीनी प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंआपकी सोच दिल को छूती है.
आपका अनुभव अनमोल है.
हार्दिक आभार सर्जना बहिन.
मार्मिक भावभीनी प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंआपकी सोच दिल को छूती है.
आपका अनुभव अनमोल है.
हार्दिक आभार सर्जना बहिन.
जसोदा बेन ने तो भारतीय नारी का कर्तव्य निभाया .काश मोदी जी भी अपना पति-धर्म निभा पाते .
जवाब देंहटाएंजसोदा बेन को नमन ही कर सकती हूँ !
जवाब देंहटाएंसर्जना जी की दो साल बाद ब्लॉग पर वापसी हुुई है...रीलॉन्चिंग के बाद पहली पोस्ट के लिए उन्होंने जो विषय चुना वो ना सिर्फ सामयिक है बल्कि एक स्त्री के तप, त्याग और बलिदान को भी सशक्त अभिव्यक्ति देता है...जशोदा बेन के मन के अंतर्द्वन्द्व को इससे बेहतर शब्दों में नहीं बताया जा सकता था...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंजसोदा बेन का जीवन एक तपस्वनी जीवन है..
सफलता के मूल मन्त्र
jashoda ben ke baare me jo aapne likha hai ek aam bhartiy unke baare me yahi sochta hai .
जवाब देंहटाएंabhi do din pahle hi dhyan gaya ki aapki koi post nahi aa rahi aapki post me jo hardik abhivaykti hoti hai vah man chhu leti hai aapke fir se yahan aane se achchha laga halanki jo kuchh aapke sath hua vah vastav me dil ko tod deta hai .
shandaar re entry sarjanaa ... gazab kee jaandaar post ke saath..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (23-04-2014) को जय माता दी बोल, हृदय नहिं हर्ष समाता; चर्चा मंच 1591 में अद्यतन लिंक पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
नई जानकारी देती रचना |
जवाब देंहटाएंआशा
जवाब देंहटाएंएक महिला के ह्रदय की दर्द को आपने टटोला है, नारी का ह्रदय की बात आपने लिखा, जो शायद देश के किसी मीडिया ने कभी नहीं रखा, यशोदा बेन जी गुमनामी की जिंदिगी जीती रही आज तक !
सर्जना जी एक बार फिर से स्वागत है इस धमाकेदार शुरुआत के लिये बधाई …………स्त्री के रूप जाने कितने हैं और उनमें से एक रूप ये भी है हम मे से कोई नही जानता कि पति पत्नी के बीच क्या समझौता हुआ या आपसी सहमति से दोनो ने अलग रहना स्वीकारा जो भी हो मगर ये तो आज लाइम लाइट मे बात आ गयी वो भी सिर्फ़ इस कारण कि पति ने ही बताया कि उसकी जीवनसंगिनी है मगर जाने कितने ऐसे हैं जो ये स्वीकारते भी नही और कितनी ही स्त्रियाँ नारकीय जीवन जीती हैं हम तो अन्दाज़ा भी नही लगा सकते , परित्यक्ता के खिताब से जब कोई औरत नवाज़ी जाती है तो उसके लिये जीवन फ़ूलो की सेज नही रह जाता बेशक आज वक्त बदला है और औरत का नज़रिया भी इसलिये स्थिति मे थोडा सुधार भी हुआ है ।
जवाब देंहटाएंजशोदा बेन के दर्द को समझा जा सकता है ........ लेकिन मोदी जी ने जो किया वो कैसे भी सही नहीं कहा जा सकता !!
जवाब देंहटाएंजो जसोदा बेन मामले में मोदी को हीरो, संत और न जाने क्या क्या बता रहे हैं
वो अपनी बहन बेटी को उसका पति छोड़े तो क़हर बरपा कर दें, दामाद और उसके परिवार मे सौ कमियां निकाल दें मगर पड़ोसी की बेटी का छूटे तो मन ही मन खुश होती हैं
आप जब भी लिखती है तो शब्दों का ऐसा जाल बुनती हैं कि पढने वाला विषय में डूबता चला जाता है, हर एक पहलू को छूता है। आपकी वापसी का स्वागत है!
जवाब देंहटाएंमैंने खुद जसोदा बेन जैसी महिलाओं को देखा है, मगर आज की जेनरेशन में ऐसी त्यागनाएं पैदा नहीं होती।
यहाँ मेरा सवाल यह है कि क्या कोई ऐसी भी वजह हो सकती है कि जीवन के किसी भी मोड़ पर मुड़ कर भी ना देखा जाए? माना कि दिल में प्यार नहीं था, मगर ज़िम्मेदारी भी कुछ अहमियत रखती है। कोई मुश्किल से मुश्किल और कठिन से कठिन कार्य करने में भी अपनी जिम्मेदारियों से कैसे भाग सकता है? और इस कार्य के लिए बुद्ध की भी तारीफ़ कैसे की जा सकती है।
जिसने आपकी खातिर पूरा जीवन आपके नाम कर दिया, क्या कोई उनके जीवन के उन पलों का बदला दे सकता है, जो इन्हें विरह में बिताने पड़ें होंगे जबकि मानसिक संबल की सबसे अधिक ज़रूरत होगी। बिलकुल नहीं, हरगिज़ नहीं!
इन महिलाओं के त्याग को सलाम, लेकिन इनके पतियों ने अपनी सोच की खातिर इन महिलाओं के हक़ की बलि चढ़ा दी, जबकि अधिकार तो केवल अपने हक़ और स्वार्थ की बलि देने का ही था।
सच कहें तो जशोदा बेन एक आम भारतीय महिला को प्रतिनिधित्व करती नजर आती है .........
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर्जना जी। सबसे पहले एक मर्मस्पर्शी लेख के लिए आपका धन्यवाद। आशा करता हूं कि आप स्वस्थ होंगी। स्त्री को समझ पाना पुरुष और उसकी प्रधानता वाले समाज के लिए एक मुश्क़िल काम रहा है। जशोदा बेन की व्यक्तिगत ज़िंदगी के बारे में आपने कितना शोध किया, मुझे नहीं पता लेकिन मैं इतना ज़रूर कह सकता हूं कि दुनिया में भारत की पवित्र धरती पर आज भी न जाने कितनी ही उर्मिला, जशोदा बेन, सावित्री, सीता और यशोधरा हैं, जो इस मायावी संसार में चुपचाप अपना कर्तव्य निभा रही हैं और त्याग व बलिदान की हमारी परंपरा को जीवित रखे हुुई हैं। मीडिया उन तक नहीं पहुंच सकता। शायद समझ भी नहीं सकता। आज के बुद्धि से पीड़ित समाज के लिए ये मानना मुश्किल है कि दिव्य क़ानून सभी दुनियावी क़ानूनों से ऊपर है। सादर- विनोद
जवाब देंहटाएंचूंकि यह जीवित चरित्र के लिए लिखा गया लेख है तो उद्देश्य केवल साहित्यिक हो ......यह प्रश्न मन में कुलबुलाहट देता है
जवाब देंहटाएंभाषा के शिल्प से समृद्ध लेखिका अपने लेखन से आकर्षित करने में सफल हुईं
रविन्द्र नाथ टैगोर के प्रति उनका विशेष सम्मान भी झलकता है
जसोदा बेन के मन की बात तो वे ही जाने ......अनुमान सभी के अपने-अपने ही
राघवेन्द्र अवस्थी ,
अभी-अभी
चूंकि यह जीवित चरित्र के लिए लिखा गया लेख है तो उद्देश्य केवल साहित्यिक हो ......यह प्रश्न मन में कुलबुलाहट देता है
जवाब देंहटाएंभाषा के शिल्प से समृद्ध लेखिका अपने लेखन से आकर्षित करने में सफल हुईं
रविन्द्र नाथ टैगोर के प्रति उनका विशेष सम्मान भी झलकता है
जसोदा बेन के मन की बात तो वे ही जाने ......अनुमान सभी के अपने-अपने ही
राघवेन्द्र अवस्थी ,
अभी-अभी
आपके माध्यम से जशोदा बेन से परिचित होना बहुत अच्छा लगा ! वे दृढ इच्छाशक्ति की गंभीर महिला हैं जिनका स्वाभिमानी व्यक्तित्व पति के ऊँचे ओहदे और रुतबे का फ़ायदा उठाने से उन्हें सदा रोकता रहा ! लेकिन उनके अंतर में बसी पतिव्रता नारी खामोशी से सदैव अपने पति के लिये मंगलकामना ही करती रही ! उनके चरित्र का यही रूप उन्हें वन्दनीय बनाता है ! बहुत बढ़िया आलेख !
जवाब देंहटाएंहैरानी होती है आज की प्रगतिशील सोच को देख कर जो नारी से नारीत्व को ही छीन रहा है और एक आरोपित पुरुष को गढ़ रहा है . जो सबसे पहले खुद से ही कभी संतुष्ट नहीं है..
जवाब देंहटाएंअवाक करता कथानक
जवाब देंहटाएंएक अजीब सी सिहरन महसूस कर रहा हूँ
मुझे कुछ विद्वान् हिन्दी साहित्यकारों की
जानकारी
मिली है जिनने अपनी अनपढ़ पत्नियों को
गाँव में छोड़ दिया कुछ तो कोड़ो से पीटते
सुने गए । नमो जसोदा माँ की कहानी इतर हा
पर भावुक कर देने वाली है
महान देवी को नमन
सिद्धि हेतु स्वामी गए, यह गौरव की बात,
जवाब देंहटाएंपर, चोरी-चोरी गए, यही बड़ा व्याघात,
सखि! वे मुझसे कहकर जाते
कह तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?'
अति सुन्दर