-- एक दुकानदार ऐसा भी -- सामान लो, पैसा दो या ना दो
------------------------------ ------------------------------ -------
आजकल की दुकानदारी बहुत कोरी करारी हो चुकी है । खाने पीने की दुकान से लेकर शो रूम और मॉल में खरीदादारी का सीधा सा नियम है पहले बिल बनवाओ फिर सामान लो । अब खरीददारी बहुत ही सपाट सी हो चुकी है दुकानदार और ग्राहक के बीच कोई संवाद या अपनापन नहीं बचा है । पुरानी दिल्ली और छोटे शहरों में खरीददारी करने का अब भी बहुत आनंद है दुकानदार प्रेम से बिठाते हैं फिर पूछते हैं क्या लोगे पहले कुछ खाना पीना फिर खरीददारी करना मान मनुहार औऱ प्रेम के साथ खरीदादारी अच्छी भी लगती है । हम बच्चे थे तो हमारे कस्बे में कपड़ा बेचने वाले , महिलाओं को साज श्रृंगार का सामना बेचने वाले यहां तक कि सोना चांदी बेचने वाले भी आते थे । सभी महिलाएं उनकी परमानेंट ग्राहक होती थीं । पैसा जब चाहे दे दो । एक साथ देदो किस्तों में दे दो कोई चिंता नहीं । उनके साथ एक अपनत्व का नाता रहता था । अब वो ज़माना बीत चुका लेकिन नोएडा की सुनहरी मार्किट के दुकानदार धर्मेंद्र सिंह जी ने बचपन के वो दिन याद दिला दिए । धर्मेंद्र सिंह हमारे बचपन के उन मोबाइल दुकानदारों से भी दस कदम आगे हैं । मेरा उनकी दुकान पर पहली बार तब जाना हुआ जब हमने 1999 में दिल्ली से नोएडा शिफ्ट किया । गृह प्रवेश के लिए पूजा के सामान की लिस्ट पंडित जी थमाई और दुकान का पता बता बता दिया . धर्मेंद्र सिंह की दुकान पर पूजा का सारा सामान औऱ धार्मिक पुस्तकें मिलती हैं । उसके बाद तो जितनी पूजा हुई या जो भी पूजा का सामान चाहिए उन्हीं से लेते । एक बार मेरी एक मित्र ने क्रिस्टल बॉल मंगवायी वो लगभग दो हज़ार की थीं । मैं इतने पैसे लेकर नहीं गयी थी । मैनें कहा बाद मेें दे दूंगी उन्होने बहुत निर्विकार भाव से कहा अच्छा । थोड़ी हैरानी हुई कि एक बार भी नहीं पूछा कब दोगी । ज्यादा परिचय भी नहीं । जब मैं उनके दो हज़ार रूपए देने गयी तो दुकान पर उनका भाई था मैनें उनके भाई को पैसे दे दिए । अगली बार धर्मेंद्र सिंह दुकान पर मिले मैनें उनसे कहा -- "भाई साबह वो दो हज़ार रूपया मैनें आपके भाई को दे दिया था "। धर्मेंद्र जी के शांत चेहरे का भाव एकदम बदल गया उन्होनें थोड़ी कड़ी आवाज़ में कहा -- "मैनें आपसे पूछा कि आपने पैसे दिए या नहीं दिए मैनें तो मांगे भी नहीं " । मुझे बहुत हैरानी हुई कैसा दुकानदार है खैर मैं चुप रही । धीरे धीरे उनसे परिचय बढ़ता गया । वो साधारण दुकानदार नहीं है बहुत ज्ञान ध्यान की बात करते हैं धार्मिक विषयों पर चर्चा करते हैं । उनका चेहरा उनकी बातचीत औऱ जीवन शैली राजपूतों जैसी भी नहीं हैं । स्वंय भी बहुत साधना करते हैं । औऱ साधना का तेज उनके चेहरे पर साफ दिखता है । आफ उनकी दुकान से कितना भी सामान ले सकते हो आपके पास पैसे हैं तो दे दो नहीं हैं तो ना दो । कब दोगे वो नहीं पूछेंगें आपसे । एक बार कुछ महिलाएं आयीं उन्होनें कहा कि अपने मौहल्ले को मंदिर के लिए उन्हें भगवान कृष्ण के लिए पोशाक चाहिएं लेकिन अभी ये तयनहीं है कि क्या और कितना लेना है क्योंकि पूरी कमेटी देख कर पास करेंगी । जन्माष्टमी का मौका था उन्होंनें दस बारह पोशाकें उठा लीं । औऱ चली गयीं । उनके जाने के बाद मैनें पूछा -- त्यौहार के मौके पर आपने इतनी पोशाकें ले जानें दीं कोई एडवांस भी नहीं लिया सिक्योरिटी भी नहीं ली । वो धीरे से मुस्कारए और बोले -- भगवान के ही तो वस्त्र हैं यदि कमेटी चुन कर अपने मनपसंद वस्त्र उन्हें पहना देगी तो मेरा क्या जाएगा । पैसे का क्या है कभी भी आ जायेंगें । और वो महिलाएं पहली बार धर्मेंद्र जी की दुकान पर आयीं थीं ।
नवरात्रों के अवसर पर एकबार मैं उनकी दुकान पर गयी नवरात्र शुरू होने से पहले ही उनकी दुकान पर भीड़ लगनी शुरू हो जाती है। कईं बार लंबा इंतज़ार भी करना पड़ता है । उन्हे लिस्ट थमा कर हम इंतजा़र कर रहे थे । इतने में एक व्यक्ति आया उसने धर्मेंद्र जी को 21 हज़ार रूपए दिया और कहा -- "माफ करना भाई साहिब पिछले नवरात्र में दुर्गा पूजन के लिए आपसे 21 हज़ार का सामान ले गया था लेकिन आने का समय ही नहीं मिला अब लाया हूं "। धर्मेंद्र जी ने एक भी सवाल नहीं पूछा उल्टा कहा - "अच्छा मुझे याद नहीं "।रूपए लिए और रख लिए । ये एक और झटका था मेरे लिए मुझसे रहा नहीं गया-- भीड़ छंटने के बाद मैनें पूछा लोग हज़ारों का समान ले जाते हैं और आप ना याद रखते हैं और ना तकाज़ा करते हैं । उन्होनें उस दिन मुझे जो उत्तर दिया वो बहुत ही दार्शनिक था --- "देखिए ये भगवान के सामान की दुकान है जो सामान ले कर पैसे दे जाता है उसका पुण्य जो नहीं देता मेरा पुण्य "। इसके आगे मैे उनसे क्या सवाल करती । उन्होनें इतनी बड़ी बात कह दी । वो सचमुच और सही मायने में धार्मिक सामान की दुकान चलाते हैं । पूर्ण भाव से भगवान को समपर्ण । आज सुनहरी मार्किट में उनकी पांच दुकानें है । अब तो उन्होनें पूजा के सामान के अलग अलग स्टोर बना दिए हैं । हमें नोएडा से दिल्ली शिफ्ट किए हुए सात साल हो गए हैं आज भी पूजा का सारा सामान धर्मेंद्र जी दुकान से ही आता है ष कईं बार तो मैं फोन करके सामान लिखवा देती तो वो मेरे फिल्मसिटी स्थित 16 सेक्टर ज़ी न्यूज़ के ऑफिस भिजवा देते पैसे मांगने का तो सवाल ही नहीं कभी भी दूं या ना दूं । आजकल ऐसे लोग बहुत कम हैं ।
------------------------------
आजकल की दुकानदारी बहुत कोरी करारी हो चुकी है । खाने पीने की दुकान से लेकर शो रूम और मॉल में खरीदादारी का सीधा सा नियम है पहले बिल बनवाओ फिर सामान लो । अब खरीददारी बहुत ही सपाट सी हो चुकी है दुकानदार और ग्राहक के बीच कोई संवाद या अपनापन नहीं बचा है । पुरानी दिल्ली और छोटे शहरों में खरीददारी करने का अब भी बहुत आनंद है दुकानदार प्रेम से बिठाते हैं फिर पूछते हैं क्या लोगे पहले कुछ खाना पीना फिर खरीददारी करना मान मनुहार औऱ प्रेम के साथ खरीदादारी अच्छी भी लगती है । हम बच्चे थे तो हमारे कस्बे में कपड़ा बेचने वाले , महिलाओं को साज श्रृंगार का सामना बेचने वाले यहां तक कि सोना चांदी बेचने वाले भी आते थे । सभी महिलाएं उनकी परमानेंट ग्राहक होती थीं । पैसा जब चाहे दे दो । एक साथ देदो किस्तों में दे दो कोई चिंता नहीं । उनके साथ एक अपनत्व का नाता रहता था । अब वो ज़माना बीत चुका लेकिन नोएडा की सुनहरी मार्किट के दुकानदार धर्मेंद्र सिंह जी ने बचपन के वो दिन याद दिला दिए । धर्मेंद्र सिंह हमारे बचपन के उन मोबाइल दुकानदारों से भी दस कदम आगे हैं । मेरा उनकी दुकान पर पहली बार तब जाना हुआ जब हमने 1999 में दिल्ली से नोएडा शिफ्ट किया । गृह प्रवेश के लिए पूजा के सामान की लिस्ट पंडित जी थमाई और दुकान का पता बता बता दिया . धर्मेंद्र सिंह की दुकान पर पूजा का सारा सामान औऱ धार्मिक पुस्तकें मिलती हैं । उसके बाद तो जितनी पूजा हुई या जो भी पूजा का सामान चाहिए उन्हीं से लेते । एक बार मेरी एक मित्र ने क्रिस्टल बॉल मंगवायी वो लगभग दो हज़ार की थीं । मैं इतने पैसे लेकर नहीं गयी थी । मैनें कहा बाद मेें दे दूंगी उन्होने बहुत निर्विकार भाव से कहा अच्छा । थोड़ी हैरानी हुई कि एक बार भी नहीं पूछा कब दोगी । ज्यादा परिचय भी नहीं । जब मैं उनके दो हज़ार रूपए देने गयी तो दुकान पर उनका भाई था मैनें उनके भाई को पैसे दे दिए । अगली बार धर्मेंद्र सिंह दुकान पर मिले मैनें उनसे कहा -- "भाई साबह वो दो हज़ार रूपया मैनें आपके भाई को दे दिया था "। धर्मेंद्र जी के शांत चेहरे का भाव एकदम बदल गया उन्होनें थोड़ी कड़ी आवाज़ में कहा -- "मैनें आपसे पूछा कि आपने पैसे दिए या नहीं दिए मैनें तो मांगे भी नहीं " । मुझे बहुत हैरानी हुई कैसा दुकानदार है खैर मैं चुप रही । धीरे धीरे उनसे परिचय बढ़ता गया । वो साधारण दुकानदार नहीं है बहुत ज्ञान ध्यान की बात करते हैं धार्मिक विषयों पर चर्चा करते हैं । उनका चेहरा उनकी बातचीत औऱ जीवन शैली राजपूतों जैसी भी नहीं हैं । स्वंय भी बहुत साधना करते हैं । औऱ साधना का तेज उनके चेहरे पर साफ दिखता है । आफ उनकी दुकान से कितना भी सामान ले सकते हो आपके पास पैसे हैं तो दे दो नहीं हैं तो ना दो । कब दोगे वो नहीं पूछेंगें आपसे । एक बार कुछ महिलाएं आयीं उन्होनें कहा कि अपने मौहल्ले को मंदिर के लिए उन्हें भगवान कृष्ण के लिए पोशाक चाहिएं लेकिन अभी ये तयनहीं है कि क्या और कितना लेना है क्योंकि पूरी कमेटी देख कर पास करेंगी । जन्माष्टमी का मौका था उन्होंनें दस बारह पोशाकें उठा लीं । औऱ चली गयीं । उनके जाने के बाद मैनें पूछा -- त्यौहार के मौके पर आपने इतनी पोशाकें ले जानें दीं कोई एडवांस भी नहीं लिया सिक्योरिटी भी नहीं ली । वो धीरे से मुस्कारए और बोले -- भगवान के ही तो वस्त्र हैं यदि कमेटी चुन कर अपने मनपसंद वस्त्र उन्हें पहना देगी तो मेरा क्या जाएगा । पैसे का क्या है कभी भी आ जायेंगें । और वो महिलाएं पहली बार धर्मेंद्र जी की दुकान पर आयीं थीं ।
नवरात्रों के अवसर पर एकबार मैं उनकी दुकान पर गयी नवरात्र शुरू होने से पहले ही उनकी दुकान पर भीड़ लगनी शुरू हो जाती है। कईं बार लंबा इंतज़ार भी करना पड़ता है । उन्हे लिस्ट थमा कर हम इंतजा़र कर रहे थे । इतने में एक व्यक्ति आया उसने धर्मेंद्र जी को 21 हज़ार रूपए दिया और कहा -- "माफ करना भाई साहिब पिछले नवरात्र में दुर्गा पूजन के लिए आपसे 21 हज़ार का सामान ले गया था लेकिन आने का समय ही नहीं मिला अब लाया हूं "। धर्मेंद्र जी ने एक भी सवाल नहीं पूछा उल्टा कहा - "अच्छा मुझे याद नहीं "।रूपए लिए और रख लिए । ये एक और झटका था मेरे लिए मुझसे रहा नहीं गया-- भीड़ छंटने के बाद मैनें पूछा लोग हज़ारों का समान ले जाते हैं और आप ना याद रखते हैं और ना तकाज़ा करते हैं । उन्होनें उस दिन मुझे जो उत्तर दिया वो बहुत ही दार्शनिक था --- "देखिए ये भगवान के सामान की दुकान है जो सामान ले कर पैसे दे जाता है उसका पुण्य जो नहीं देता मेरा पुण्य "। इसके आगे मैे उनसे क्या सवाल करती । उन्होनें इतनी बड़ी बात कह दी । वो सचमुच और सही मायने में धार्मिक सामान की दुकान चलाते हैं । पूर्ण भाव से भगवान को समपर्ण । आज सुनहरी मार्किट में उनकी पांच दुकानें है । अब तो उन्होनें पूजा के सामान के अलग अलग स्टोर बना दिए हैं । हमें नोएडा से दिल्ली शिफ्ट किए हुए सात साल हो गए हैं आज भी पूजा का सारा सामान धर्मेंद्र जी दुकान से ही आता है ष कईं बार तो मैं फोन करके सामान लिखवा देती तो वो मेरे फिल्मसिटी स्थित 16 सेक्टर ज़ी न्यूज़ के ऑफिस भिजवा देते पैसे मांगने का तो सवाल ही नहीं कभी भी दूं या ना दूं । आजकल ऐसे लोग बहुत कम हैं ।
sundar sansmaran sanoya hai aapne .nice post .thanks
जवाब देंहटाएंइस भाव से व्यापार करने वाले हमेशा लाभ में रहते हैं। बहुत अच्छी जानकारी।
जवाब देंहटाएं