रविवार, अगस्त 31
पर्यूषण पर्व ----धर्म जीवन को संवारता है गढ़ता है ।
अंहकार का भाव ना रखूं , नहीं किसी पर खेद करूं ।
देख दूसरों की बढ़ती को कभी ना ईष्या भाव धरूं ।।
रहे भावना ऐसी मेरा सरल सत्य व्यवहार करूं ।
बने जहां तक इस जीवन में औरों का उपकार करूं ।।
ये कुछ पंक्तियां है -- “मेरी भावना “ की जो हम अपने स्कूल में हर रोज़ सुबह प्रार्थना के समय गाते थे । आज तक मेरी भावना पूरी याद है भूली नहीं . भूलीं ही नहीं बल्कि जीवन में अनेक बार जब दुविधा में मन होता है तो मेरी भावना मन ही मन दोहरा लेती हूं । कच्ची क्लास से लेकर ( जी हां मैं हिंदी माद्यम स्कूल से पढ़ी हूं उस समय नर्सरी और केजी नहीं होती कच्ची पक्की क्लास होती थी ) दसवीं कक्षा तक हर रोज़ हमारा दिन स्कूल में नमोकार मंत्र , मेरी भावना, भगवान महावीर जी की आरती और राष्ट्र गान से शुरू होता था । मैं जैन स्कूल से पढ़ी हूं । हमारा स्कूल श्वेतांबर 13 पंथी स्थानक वासी था । हमारे घर पर भले ही कट्टर सनातन धर्म का पालन होता था लेकिन स्कूल में जैन धर्म का कड़ा पाठ पढ़ाया गया । स्कूल चूंकि जैन प्रबंधन का था इसलिए आसपास जैन धर्म को मानने वाले बहुत से लोग रहते थे । स्कूल में अनेक पदों पर जैन ही थे । बचपन से जैन धर्म के कठोर अनुशासन ने ऐसा ही बना दिया था जैसे फौज में जवानों और अफसरों की कड़ी ट्रेनिंग होती है । स्कूल में प्याज़ अंडा मीट आदि का लंच कोई नहीं ला सकता था । अगर कोई पकड़ा जाता था तो कोई सुनवाई नहीं सीधे स्कूल से निष्कासन । स्कूल में स्थानक थी जहां जैन साधु और साध्वियां आकर समय समय पर प्रवास करते थे । चौमासे में तो महाराज जी ( जैन साधु और साध्वियां ) प्रवास करते ही थे
वैसे भी समय समय पर आते रहते थे । क्योंकि हमारे स्कूल में पाली भाषा के जैन ग्रंथों की दुर्लभ लायब्रेरी थी और धर्म गुरूजी भी थे जो जैन साधु साध्वियों को पढाते थे और हमारे स्कूल में धर्म का पीरियड़ लेते थे । बाकी सारे पीरियड़ 45 मिनट के होते थे लेकिन धर्म का पीरियड़ एक घंटे का होता था । हर साल धर्म की परीक्षा होती थी । मैनें मेरी बहन और अन्य बहुत से छात्रों ने नवकार , रजत और स्वर्ण और हीरक परीक्षाएं पास की । जैन धर्म की साल में एक बार परीक्षा होती थी बोर्ड लुधियाना में था हमारे प्रश्न पत्र वहीं से बन कर आते थे और वहीं उत्तर पुस्तिकाएं जांची जाती थीं । उस समय कभी कभी बहुत कोफ्त होती थी हे भगवान अपना भी पढो औऱ उपर से धर्म भी पढ़ो लेकिन अब लगता है कितना अच्छा किया हमारे स्कूल ने जो धर्म का पीरियड़ रखा । हमें बेहतर इंसान बनाया हमारे दिल में दया धर्म परोपकार जैसे गुण जगाए । स्कूल मे जैन साधु साध्वियों का प्रवास रहता था उनके अति कठिन नियम देख कर हम सोचते थे कैसे ये लोग ऐसा जीवन जी लेते हैं । सचमुच जैन धर्म के साधु संतों का जीवन बहुत कठिन और त्याग से भरपूर है । जब भी किसी महाराज जी का आगमन होता तो हम बैंड बाजे के साथ महाराज जी की अगवानी करने जाते । पांचवीं कक्षा से दसवीं तक के बच्चे लाईन बना कर पूरे जुलूस की शक्ल में जाते और महाराज जी की अगवानी करके लाते । जब महाराज विहार ( प्रस्थान ) करते तब भी वैसे ही विदा किया जाता जैसे अगवानी की जाती थी । जैन धर्म में चौमासे के अलावा कहीं भी ज्यादा दिन महाराज जी नहीं रूक सकते । जैन साधु आते तो लड़को की ड्यूटी स्थानक में लगती थी । गुरू जी से नोट्स लेना देना महाराज जी को आहार (भोजन ) के लिए ले जाना स्कूल के छात्रों के जिम्मे रहता था । और जब साध्वियों का प्रवास होता तो छात्राओं की ड्यूटी रहती थी । दिन छिपने के बाद साधुओं के पास कोई लड़की नहीं जा सकती और साध्वियों के पास कोई लड़का नहीं जा सकता । महाराज जी बिजली का स्विच ना ऑन करते हैं ना ऑफ करते हैं । इसलिए उनके पास रहना ज़रूरी होता था । वो अपना पठन पाठन करते और हमें भी साथ साथ ज्ञान देते रहते । उनकी सीख जीवन में बहुत काम आयीं हमें बहुत अच्छा इंसान बनाया । चातुर्मास के बीच में आते पर्यूषण पर्व । आठ दिन के इस पर्व
में महाराज जी के अलावा जैन धर्म के अनेक विद्वान आते घंटो प्रवचन होते । इन 8 दिनों में पढ़ाई ना के बराबर होती थी । सभी जैन अपने घर में सवा-- सवा लाख के नमोकार मंत्रों का जाप रखते । एकासना करते । पाठ करने वालों की सूचियां पहले से बन जातीं हम भी नमोकार मंत्र का जाप करते एक एक घंटे की पारी लगती । उन दिनों में स्कूल जाना थोड़ी बोरियत लगती शायद बचपन में धर्म की गंभीर चर्चा किसी को भी इतना ही बोर करती । हमने इन दिनों के लिए अपने कुछ गेम ईजाद कर रखे थे । स्कूल के हॉल में बैठे बैठे वही गेम खेलते चुपचाप किसी को पता ना चले । जैसे जैसे बड़े हुए बात समझ आने लगी । जब स्कूल पास करके बाहर निकले तो धर्म के उस पीरियड़ , महाराज जी की सेवा और उन प्रवचनों का असर जीवन में दिखा
पर्यूषण पर्व के अंतिम दिन होती थी संवत्सरी यानि क्षमा पर्व जिसमें हम सब एक सुर में अपने जाने अंजाने में किए हुए पापों के लिए जाने अंजाने में किसी का दिल दुखाने के लिए दिल से क्षमा मांगते । क्षमा ही नहीं बल्कि एक संकल्प भी --- करूं नहीं कराऊं नहीं अनुमोदु नहीं वचन से का संकल्प भी लेते । जैन धर्म के 25 बोल में से एक बोल है ये जिसका अर्थ है --- ना में कोई पाप और बुरा कर्म करूं , ना कराऊं औऱ ना ही अनुमोदन करूं । महाराज जी हमें हमेशा बताते थे कि केवल बुरे कर्म करने से ही पाप नहीं लगता बल्कि किसी दूसरे करवाने और उकसाने का भी उतना ही पाप है । यहां तक कि अगर किसी बुरे कर्म करने वाले को आपने कहा कि बहुत अच्छा किया । उसका भी उतना ही पाप है ।
सनातन धर्म , जैन धर्म और सिख धर्म की जिस मज़बूत नींव पर बचपन की शिक्षा दीक्षा हुई उसने एक व्यापक सोच दी । अच्छे बुरे ,पाप पुण्य का अंतर समझाया । “आजकल सेकुलरज़िम के नाम पर स्कूलों से MORAL EDUCATION समाप्त कर दी गयी है उससे समाज का ही नुकसान हो रहा है “--- हिंदु धर्म के पुरोधा औऱ स्कॉलर सांसद कर्ण सिंह ने संयुक्त राष्ट्र के एक कार्यक्रम में दिल्ली में चिंता जतायी थी । और उनकी चिंता बहुत स्वाभाविक भी है । सेकुलरज़िम सर्व धर्म सम भाव का पाठ पढाता है ना कि किसी एक धर्म को अच्छा या बुरा बताता है। धर्म को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की दीवार में नहीं बांटता । हर धर्म सुंदर है हर धर्म नैतिकता का पाठ पढ़ाता है । मेरा अपना अनुभव बहुत अच्छा है । जैन स्कूल में पढ़ने और उनके कठोर नियमों के पालन ने मुझे सनातन धर्म से दूर नहीं किया , लगभग हर संडे या फिर महीने में एक बार नाड़ा साहिब गुरूद्वारा जाने से मैं सिख नहीं बन गयी लेकिन धर्मों के इस सुंदर मिश्रण ने मेरे जीवन को भी सुंदर बनाया । जीने की नेक और अच्छी राह सिखायी । जिस तरह का सेकुलरज़िम आज चलन में है उस से तो मैं दूर रहना ही बेहतर समझूंगी ।
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बढ़िया लेख
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