शनिवार, दिसंबर 18

गुलाबो मौसी

टीवी पर एक खबर चल रही थी मुंबई में राष्ट्रीय किन्नर संघ के अध्यक्ष गोपी अम्मा की हत्या के आरोप में उन्ही की शिष्या आशा अम्मा पकड़ी गयी । मामला प्रोपर्टी का था । किन्नर जो कि खुशी  के मौके पर हर घर में आकर नाचते गाते हैं अब बहुत से अपराधों में पकड़े जाने लगे हैं । कभी किसी को जबरन पकड़ कर हिजड़ा बनाने के आरोप में तो कभी आपसी लड़ाई झगड़े औऱ  लूटपाट के आरोप में पकड़े गए । सड़क पर चौराहों पर जब लाल बत्ती होने पर गाड़ी रूकी रहती है तो सजे धजे किन्नर मांगने आ जाते हैं । मंदिरों के बाहर भी किन्नर मांगते रहते हैं । मैं कभी  भी किसी किन्नर को खाली हाथ नहीं जाने देती । कुछ रूपए उनकी  हथेली पर ज़रूर  रखती हूं । कई बार राह में यूंही चलते फिरते मिल जाते हैं तो भी उन्हें पैसे ज़रूर देती हूं। 

मैं जब भी किन्नरों को देखती हूं मुझे गुलाबो मास्सी याद आ जाती है । गुलाबो मास्सी की बहुत मीठी यादें मेरे साथ जुड़ी हैं । मुझ से ही क्यूं हमारे मौहल्ले के हर बच्चे को आज भी  गुलाबो मास्सी की याद है । गुलाबो मास्सी का सूचना केंद्र तो हम सब बच्चे ही होते थे । हमारे मौहल्ले में 16 घर थे सबके 6 या सात बच्चे थे बस मैं और मेरी बहन ही दो थे । हमारा मौहल्ला एक बड़े परिवार की तरह था । सब बच्चे मिल कर बहुत उधम काटते थे । 

गुलाबो मास्सी जब अपनी टोली के साथ आती तो उनका ढोलक वाला ज़ोर से अपनी ढ़ोलक पर थाप देता और वो ताली बजातीं । हम सब बच्चे भाग कर गुलाबो मास्सी के पास पंहुच जाते । हमारे मौहल्ले में घुसते ही पीपल का पेड़ था और वहां बैठने की जगह भी बनी हुई थी गुलाबो मास्सी अपनी टोली के साथ वहां बैठ जाती हम सब को लाड़ दुलार करती । फिर वो पूरी सूचनाएं लेती किस के घर बेटा हुआ , किसके बेटे की शादी हुई , या किसकी बेटी अपने मायके डिलीवरी  कराने आई हुई  है । अपने मौहल्ले तो क्या पूरे शहर  की  खबर  हम मास्सी को बता देते। 

फिर वो पूछतीं,  'कुड़े तेरी  मां ने की चाढ़या '  ए लड़की तेरी मां ने आज क्या खाना बनाया है । हम बता देते फिर वो कह जाती कि आज मैं तुम्हारे घऱ खाना खांऊगी । उनका सबके साथ अपनेपन का नाता था मास्सी यानि मौसी हमारी मां की बहन यही संबोधन उन्हें सब देते थे ।  कभी  किसी से लडती नहीं थीं , ना ही किन्नरों जैसी अश्लील हरकतें करतीं थीं । अगर किसी ने कहा कि आज नहीं अगले हफ्ते नाचने आ जाना तो वो मान जातीं । कभी नेग को लेकर उन्होने विवाद नहीं किया हां सूट ज़रूर मांगती थी. उनके ढ़ोलक वाले के कपड़े भी कभी कभी मांग लेतीं । वो सबकी माली हालात के बारे में जानती थीं, इसलिए हैसियत देख कर नेग लेतीं कभी ज्यादा की जिद नहीं करती।

अगर मैं कहूं कि गुलाबो मास्सी किसी सदगृहस्थ महिला जैसी थीं तो इसमें कोई अति श्योक्ति नहीं  होगी   । सब महिलाओं के साथ बहुत अच्छा संबंध  रखती दुख सुख में आती जाती । हम बच्चों से तो एक विशेष रिश्ता था सूचनाएं तो सभी हम से ही मिलती थीं । गुलाबो मास्सी पिंजौर से आया करती थीं उनका बड़ा सारा इलाका था । हम पंचकूला में रहते थे. उन्होनें जिन बच्चों के पैदा होने में नाचा उनके बच्चों के पैदा होने पर भी वही आती थीं । जो अपने घर में नचवाता था वो हम बच्चों से ही कह देता-जाओ सबके घर सददा यानि बुलावा दे आओ .

हम आनन फानन में सबको बुला लाते . तब तक उनकी टोली चाय पानी पीती । 10 -15 निनट में सब महिलाएं उनके लिए आटा , चावल चीनी और नेग लेकर पहुंच जातीं । और वो मन लगा कर नाचती उनकी टोली के अन्य किन्नर भी नाचते पंजाबी गाने , फिल्मी गाने . और उनका ढ़ोलक बजाने वाला तो लाजवाब था । बहुत अच्छी ढ़ोलक बजाता । जब तक वो जीयीं उनके साथ वही रहा।

मेरी बुआ की बेटी अरूणा  भी बहुत अच्छी ढ़ोलक बजाती है . गर्मियों की छुट्टियों में वो आयी होती तो ढ़ोलक वाले के पास बैठ कर और अच्छा  बजाना सीखती    और हंसी में कहती थी अगर मुझे बड़े होकर नौकरी ना मिली तो मैं भी आप लोगों की टोली में ढ़ोलक बजाऊंगी । गुलाबो मास्सी मुझे रख लोगी ना ? और सब हंस देते। और फिर बारी आती बच्चे को लोरी सुनाने की .

किन्नर नवजात शिशु को अपनी गोद में लेकर दूध पिलाने का अभिनय करते और साथ ही गाते ---' घर जाण दे री लाला रोवे मेरा' यानि अब मुझे घर जाने दो मेरा बच्चा रो रहा है । गुलाबो मास्सी नवजात शिशु को अपनी गोद में लेकर एक पीढ़े  पर बैठ जाती    और अपने आंचल से बच्चे को ढ़क दूध पिलाने का अभिनय करती । उस समय उनके चेहरे पर किसी ममतामयी मां जैसे भाव  होते। आंखे थोड़ी नम हो जातीं । हम छोटे थे लेकिन जैसे अपनी मां की आंखों की भाषा समझ सकते थे वैसे ही गुलाबो मास्सी की आंखो और चेहरे के भाव भी पढ़ लेते थे।

अब जब उनका वो चेहरा आंखों के सामने आता है तो महसूस होता है कि उस समय उन्के दिल को अपने किन्नर होने का कितना दुख होता होगा । शायद   मातृत्व का कुछ पल का वो सुख  वो सुखद अहसास उन्हें भावुक बना देता था । दुलाबो मास्सी की गोद में अपना बच्चा सौंपने में   किसी को   ज़रा भी  संकोच नहीं होता था । और फिर बच्चे को गोद में लिए लिए ही वो सबसे नेग लेती । और फिर बच्चा अपने ढ़ेरों आशीर्वादों के साथ मां , दादी या नानी की झोली में डाल देतीं अगर उनसे कोभ कहता गुलाबो आज तो तू थोड़ा ही नाची तो वो कहती लो और नाच देती हूं।

वो सबको खुश करके जातीं औऱ जाते जाते  वो  नेग में मिले चावलों के दानों से अपनी   मुठ्टी भर  लेतीं   औऱ गातीं --- तेरे कोठे उत्ते मोर तेरे मुंडा जम्मे होर साल नूं फेर आंवां ( तेरी छत पर मोर है , तेरे एक बेटा और हो और अगले साल मैं फिर बधाई गाने आऊं )  वो कईं बार पूरे सुर ताल में अपनी मंडली के साथ यही लाईन गातीं जातीं और चावल के दाने घर की तरफ डालती जातीं । तब तक फैमिली प्लानिंग का रिवाज़ नहीं था । औऱ हंसते मुस्कुराते वो लौट जातीं।

पहले वो बस में आया करती थीं फिर उन्होने एक मारति कार खरीद ली और उसी में आया करतीं । गुलाबो मास्सी ने हम सब को बड़े होते देखा , सबकी शादी होते और फिर बच्चे होते देखे । पढ लिख कर मैं नौकरी करने दिल्ली आ गयी मेरी बहन के बेटा हुआ तो वो खुशी के मारे पागल हो गयी । क्योंकि हमारा कोई भाई नहीं था खूभ नाच कर गयीं नेग लेकर गयीं । जब कभी  मैं दिल्ली से  घर जाती और वो किसी के यहां बधाई गाने आतीं तोमैं उनसे जाकर ज़रूर मिलती और वो  खूब प्यार दुलार करतीं । आजकल जब किन्नरों की हरकतों के बारे में पढ़ती हूं तो मन दुखी  हो जाता है।

किन्नरों की कमाई भी अब कहां रही . हम दो हमारे दो और बच्चा एक ही अच्छा के नारे ने उनकी आमदन तो खत्म कर ही दी है बढ़ते शहरी करण में उनके इलाके भी शायद वैसे सुरक्षित नहीं रहे जैसे पहले हुआ करते थे । वसंत विहार में रहने वाले हमारे एक मित्र ने बताया कि उनकी विशाल कोठी में जब व्हाईट वाश हुआ तो इलाके के किन्नर नेग मांगने आगए कहने लगे आपका बेटा तो शादी करता नहीं फिर कोठी की पुताई का ही नेग दे दो।

अब कुछ किन्नर अपने काम धंधे में भी लगने लगे हैं । और कुछ अपराध की दुनिया में चले गए हैं । लेकिन मेरे मन में तो बचपन से ही एक छवि है ममता मयी गुलाबो मास्सी की वो अब इस दुनिया में नहीं रहीं लेकिन उनकी याद मैं कभी  भुला नहीं पाऊंगी । महानगरीय जीवन में किन्नर तो क्या अपने पड़ोसी से भी हम ऐसा नाता नही जोड़ पाते हैं जो हमारे पूरे मौहल्ले के छोटे से कस्बे  का  गुलाबो मास्सी के साथ था।

सोमवार, दिसंबर 6

ये ट्रेन टू सहारनपुर-मन की पटरियो पर दौड़ती एक्सप्रेस

सर्जना शर्मा
सहारनपुर से लौटते समय जब मैं शाम को देहरादून शताब्दी में चढ़ी तो देखा-- मेरी आरक्षित सीट पर एक भद्र महिला अपने लैपटॉप पर काम कर रही थी । पतली दुबली कॉटन की साड़ी पहने हुए चश्मा लगाए हुए देखने में काफी संभ्रात और सुशिक्षित लग रही थीं . मैने अपना टिकट निकाल कर फिर से अपना सीट नंबर देखा ।
नंबर तो ठीक है, फिर मैने उनसे पूछा-- आपका सीट नंबर क्या है।
 उन्होनें सधे लहजे में अंग्रेजी में जवाब दिया -- यू आर राईट टिस इज़ योर सीट इफ यू वांट मी टू गेट अप आई  विल गो टू माई सीट ।
मैने उनसे कहा कि मुझे कोई प्रॉबलम नहीं है आप इसी सीट पर बैठी रहिए ।
वो थोड़ा आश्वस्त हुई और फिर से अपने लैप टॉप पर बिज़ी हो गयीं । मैंने उने साथ वाली सीट ले ली और अपना बैद उपर रखने से पहले उसमें से संतोष देसाई की किताब निकाल ली । जिसे मैं रास्ते में पढ़ कर खत्म कर देना चाहती थी ।
 थोड़ी देर बाद वो अपनी सीट से उठीं और पीछे की सीट पर बैठे युवक को इंटनेट का पलग इन वापस किया और शिकायत भरे लहजे में बोलने लगी-- यहां कुछ भी  काम नहीं करता , यहां सब कुछ है लेकिन कुछ नहीं चलता वहां ऐसा नहीं है वहां सब कुछ ठीक से चलता है मशीने भी और आदमी भी । मैनें उनके लैपटॉप पर पढ़ लिया था कि वो अमेरिका की रहने वाली हैं और मैं समझ रही थी कि वो भारत को कोस रही है । यहां की व्यवस्था  को कोस रही हैं ।
मैं बहुत देर तक उनकी बात सुनती रही मुझसे नहीं रहा गया तो मैने उनसे कहा इतना भी बुरा नहीं है भारत यहां सब कुछ है अब आप ट्रेन में चल रही हैं तो कहीं ना कहीं कनेक्टिविटी की समस्या तो आपको आयेगी ही । लेकिन उनका पुरजोर तरक् यही रहा कि भारत बिल्कुल बेकार है यहां कुछ भी ठीक से काम नहीं करता ।
मैने उनसे कहा-
भारत में जो है वो अमेरिका में नहीं है और जो अमेरिका में है वो भारत में नहीं है । आप दोनों देशों को अच्छे से समझती होंगी । आप डॉक्टर हैं क्या ।
उन्होने जवाब दिया-
 नहीं मैं इंजीनियर हूं और मैनें 1964 में रूड़की इंजिनियरिंग कॉलेज से इंजिनियरिंग की है ।
उनकी उम्र 60 के पार थी मुझे भी एक बार झटका लगा 60 के धशक में महिला इंजिनियर ? आपके माता पिता बहुत प्रोग्रेसिव रहे होंगें जो आपको लड़की होते हुए इंजिनियरिंग की पढ़ाई करवा दी ? ेकिन जो जवाब उन्होने मुझे दिया उससे मैं हैरान हो गयी --
नहीं मेरे पिता बहुत ही एमसीपी थे महिलाओं की कद्र करना नहीं जानते थे उन्हें लगता था महिलाएं किसी लायक नहीं होतीं उनसे बस खाना बनवा लो यही बहुत है ।
फिर आपको इंजिनियर कैसे बना दिया ?   खुद रूड़की  इंजिनियरिंग कॉलेज में पढ़ाते थे मुझे कहीं बाहर भेजना नहीं चाहते थे अपनी नज़रों के सामने रखना था तो इससे अच्छा तरीका क्या हो सकता था ये बात दीगर है कि मैनें टॉप किया ।लेकिन फिर भी मुझे घर में वो दर्जा वो प्यार कभी नहीं मिला जो मेरे भाइयों को मिला ।
वो महिला जो कुछ देर पहले मेरे लिए बिल्कुल अंजान थी वो अपने जीवन के कडवे अनुभवों को मेरे सामने कहती चली गयीं । क्या दिल में इतना कुछ था जिसे वो किसी के भी सामने कह सकती थीं । अपनी मां को लेक भी वो बहुत दुखी थी ।  उन्होने बताया कि उनके पिता ने कभी  उनकी मां की कद्र नहीं की । शादी के कुछ दिन बाद ही उनसे कह दिया अपने मायके या मुझ में से किसी एक को चुन लो उनसे मतलब रखोगी तो मुझ से नहीं । मां ने बिना विरोध किए मायके आना जाना छोड़ दिया । लेकिन उनके   मामा आते रहे औऱ  उनकी  मां का पूरा खर्च यहां तक कि कपड़े भी मामा ही देकर जाते थे । और  उनके  पिता को इस पर कोई एतराज नहीं था । मां के पेट में भयंकर दर्द रहता डॉक्टरों ने बताया कि ऑपरेशन होगा लेकिन पिता ने नहीं कराया कराया भी तो 50 साल के बाद ।
     एक लड़की जिसने अपनी मां को तिल तिल कर मरते देखा होगा जिसने मां को पिता का  अत्याचार सहते देखा हो वो कितनी कड़वाहट लेकर डर मन में पाल कर बड़ी हुई होगी । मुझे उनसे सहानुभूति होने लगी लेकिन मैंने उनके प्रवाह को रोका नहीं शायद एक अंजान हमसफर के सामने अपना दिल खोल कर उनका मन हल्का हो रहा हो । फिर उन्होने  अचानक मुझसे पूछा तुम तो बहुत पढ़ी लिखी लगती हो और तुम्हारी बातचीत के लहजे से लगता है कि तुम बहुत एक्सपोज़ड हो क्या करती हो तुम । मैने उन्हें अपना छोटा सा परिचय दे दिया । मेरे हाथ में संतोष देसाई की जो किताब थी उसका मैं एक पन्ना भी नहीं पलट पायी थी । उन्होने किताब मेरे हाथ से ले ली और उसके कवर पेज पर लिखा नाम पढ़ने लगीं ।
उनकी बातचीत का रूख एकदम बदल गया उन्होने मुझसे पूछा कि किसी भारतीय महिला ने उन्हें अमेरिका में बताया कि भारत में महिलाओं की स्थिती बहुत खराब है । शादियों में बहुत देहज लिया जाता है ससुराल वाले जला कर मार देते हैं । नौकरियों में बहुत शोषण है तरक्की नहीं दी जाती अहम पदवी नहीं दी जाती । गर्भ में ही लड़कियों की हत्या कर दी जाती है पूरे पूरे गांव ऐसे हैं जहां एक भी लड़की नहीं है । ये किस हद तक सही है ?  मैं पशोपेश में पड़ गयी विदेशी मीडिया में भारत की नेगेटिव छवि का ही शायद ये असर था । मैने उन्हे बताया आप को जिसने ये बताया उनकी राय कुछ हद तक सही हो सकती है लेकिन शतप्रतिशत सही नहीं है । बहुत कुछ बदला है आज हर क्षेत्र में आपको लड़कियां काम करती नज़र आ रही हैं पढ लिख भी रहीं है तरक्की की राह पर हैं । लेकिन पुरूषों की मानसिकता नहीं बदली है । अमेरिका में भारतीय पुरूषों की छवि बहुत खराब है जबकि भारतीय महिलाओं को संजीदा और विनम्र माना जाता है ।                            
  वो पिछले 25 --30 साल से अमेरिका में हैं उन्होने वहां गए भारतीय पुरूषों के व्यवहार को अच्छे से जाना और समझा अपने पति के बारे में भी उन्होने बहुत सी बातें बताई । पति भी इंजिनियर हैं लेकिन उन्हें मलाल है कि पति ने उन्हें कभी अपना हमसफऱ जीवनसाथी माना ही नहीं । वो अपने दिल का दर्द कहती चली गयी उनकी आवाज में एक तरह की निस्पृहता थी भावावेग नहीं था शायद इतने बरसों में वो अपने मन की पीड़ाओं के साथ जीना सीख गयी हैं । उनकी बातचीत अपने पिता पति और भाइयों के आस पास ही केंद्रित रही । उनकी मां अपने ज़माने की पोस्ट ग्रेजुएट महिला थीं लेकिन पिता ने कद्र नहीं की वो इंजिनियर थीं। पति ने कद्र नहीं की उन्होने बताया कि उनके पति उन्हें इतना मारते थे कि वो जब तक बेहोश नहीं हो जातीं पिटते रहते । अब पति से उन्होनें तलाक ले लिया है लेकिन तलाक ले लेने से क्या पुरानी यादों से तलाक हो जाता है यादें कहां पीछा छोड़ती हैं । अपनी और अपनी मां की आपबीती वो सुनाती रहीं । उनके पिता ने कभी उनकी मां की पिटाई नहीं की लेकिन भावनात्मरूप से उन्हें सबसे अलग थलग कर दिया । औऱ यहां तक कि उन्हें पागल भी करार दे दिया । और सबको यकीन दिला दिया कि वो मानसिक रूप से असंतुलित हैं । लेकिन उन्हें पूरा यकीन है कि उनकी मां कतई पागल नहीं थीं अगर किसी के साथ इतना बुरा व्यवहार किया जाएगा तो कोई भी अजीब सा हो जाएगा । उन्होने  कअपनी मां के मानसिक रूप से ठीक होने की एक घटना बताई । एक बार मां बहुत बीमार हुई तो सब भाई बहन आ गए देश विदेश से । जब उनके भाई मां से मिले तो पिता ने पूछा इन्हें पहचानती हो कौन है ?, बेटों ने पूछा हमें पहचानती  हो ? मां ने ना में गर्दन हिला दी । अब तो पिता ने कूद कूद कर अपने बयान की पुष्ठि की कि देखो मैं तो कहता ही हूं कि ये पागल हो चुकी है । लेकिन इस सब के बीच मां और बेची का आंखों की भाषा में संवाद चल रहा था । जब सब इदर उधर हो गए तो बेची ने मां का हाथ पकड़ कर कहा मां बताओ मैं कौन हूं ?  मां ने तुरंत गले लगा लिया और आंखों से आंसू बहने लगे और बोलीं  क्या तुम भी मुझे पागल समझती हो ? फिर  तुमने भाई को पहचानने से क्यों इंकार किया ?  जान बूझ कर किया जब मैं उसके पास रहने गयी तो उसने उसकी बीबी ने मेरे साथ बहुत बुरा व्यवहार किया था । ये घटना इतना कुछ बता गयी कि औऱ कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं थी।
  अगर उच्च  शिक्षित और उच्च पदों पर बैठे लोग, समाज में जिनका ऊंचा दर्जा है , जो संभ्रांत और सुसंस्कृत  माने जाते हैं उनका अपनी पत्नी, अपनी बहन , अपनी बेटियों के साथ ऐसा व्यवहार है तो फिर हम आम लोगों को कैसे दोष दे सकते हैं । हम समाज बदलने की बात करते हैं लेकिन अपने घर में महिलाओं के साथ बुरा व्यवहार करते हैं। चार घंटे के सफर उन्होने मुझे और भी बहुत कुछ बताया । मैं उन्हें दोष बी नहीं दे सकती थी बारत में महिलाओं के दर्जे को वो अपने अनुभव अपने चश्में से ही देखेगीं। और बचपन से लेकर अब तक पुरूषों की जिस कूढ़ मगज़ मानसिकता से उनका पाला पड़ा वो उनकी अवधारणा को मज़बूत करने के लिए काफी था । शायद उन्हें पति अच्छा मिल जाता तो पिता के दिए जख्मों को वो भूल जातीं । उनकी आपबीती ने मेरे मन में बहुत से सवाल खड़े किए कितना बदला है हमारा समाज अगर एक इंजिनियर महिला के साथ ऐसा हो सकता है तो फिर एक सामान्य लड़की की क्या हैसियत । आप सब के पास इन सवालों के जवाब हों तो मुझे ज़रूर बताएं ।
दिल्ली पहुंचते पहुंचते रात के पौने  बारह बज चुके थे और सहारनपुर से दिल्ली तक मेरे और उनके बीच  एक रिश्ता सा कायम हो गया । ऐसी कीं महिलाएं मुझे कई बार मिलीं, बिल्कुल अनजान लेकिन अपने दिल का दर्द ऐसे बताया मानों बरसों से हम एक दूसरे को जानते हों ।
अगली बार फिर कभी -------------                                   



गुरुवार, दिसंबर 2

कहानी डेविड की

 अपराधी कौन डेविड या सिस्टम ?                                     
 1992 की बात है।
 कनॉट प्लेस की मर्केनटाईल हाऊस बिल्डिंग में मेरा दफ्तर था।
मैं संडे मेल साप्ताहिक  और समाचार मेल दैनिक में नगर संवाददाता थी।
गर्मियों के दिन थे। मैं रिपोर्टिंग से लौट कर अपनी रिपोर्ट तैयार कर रही थी कि सिक्योरिटी गार्ड मेरे पास आया और बोला मैडम आपसे मिलने एक आदमी आया है, शायद गांव से आया है कुछ गठरियां बांध कर लाया है । जितनी हैरानी के भाव उसके चेहरे पर थे उतनी ही हैरान मैं भी  हो गयी । कोई तो आने वाला नहीं था फिर कौन ? मैं बाहर गयी तो देखा ऑफिस के गेट से बाहर डेविड दो तीन गठरियां लेकर बैठा था।
तुम इतनी गर्मी में ? हां दीदी नमस्ते आपके लिए तरबूज , खरबूजा ककड़ी और खीरे लाया हूं । बहुत मीठे हैं। मैं डेविड को कोई जवाब नहीं दे पायी , मेरा गला भर आया। अपने प्रति उसके निस्वार्थ और अगाध स्नेह को देख कर। तब तक मेरे सभी सहयोगी भी बाहर आ गए सब हंसने लगे। कोई नहीं समझ सकता था कि ये तरबूज , खरबूजे और खीरे ककड़ी डेविड की अनूठी सौगात थे मेरे लिए कोई मुझे लाखों के हीरे भी दे जाता तो शायद मेरे लिए उनकी कीमत भी इनकी तुलना  में ना के बराबर होती  । खैर मैने डेविड को अंदर रिसेप्शन में बिठाया और ठंडा पिलाया और कुछ खिलाया भी ।
थोड़ी देर बाद डेविड वापस चला गया ।
 डेविड से मेरी पहली मुलाकात वीर अर्जुन अखबार के दफ्तर में हुई जहां मैं चीफ सब थी। डेविड दफ्तर  की डस्टिंग करता सबके लिए चाय पानी लाता और बहुत खुश रहता। खबरों पर पूरी नजर रखता। हर खबर मैं दिलचस्पी लेता अपनी 'एक्सपर्ट' राय देता  मैं दफ्तर मैं नयी थी । वीर अर्जुन में कईं साल से काम कर रही सीमा किरण से उसका अच्छा सा नाता था सीमा उसे प्यार भी करती और डांटती भी। सीमा ने ही बताया कि डेविड तिहाड़ जेल में कई साल बिता चुका है। हर तरह के अपराध कर चुका है। अब जेल से तो छूट गया लेकिन पेशियां लगती रहती हैं। एक शातिर अपराधी और वो भी अखबार के दफ्तर में?   सीमा ने कहा सर  ( अखबार के मालिक अनिल नरेंद्र )  ने इसे रखा है क्योंकि अब ये अपराधों से तौबा कर चुका है और एक अच्छे व्यक्ति का जीवन बिताना चाहता है औऱ अखबार के दफ्तर मैं ही काम करेगा ये इसने ठान रखा है । और ये लगभग एक साल से यहां है बहुत शराफत और तमीज़ से रहता है । खैर मेरे साथ उसका सीमित संवाद रहता लेकिन वो बहुत प्रेम से हम सब की सेवा करता उसका नाम सीमा ने सेवा संपादक रखा हुआ था । कुछ महीने काम करने के बाद मैने  वीर अर्जुन छोड़ दिया । और किसी प्रोजेक्ट  पर काम करने लगी ।
                                                                                
 चार साल बाद 1991 मैं मैने डालमिया ग्रुप का संडे मेल साप्ताहिक और समाचार मेल दैनिक सांध्य ज्वाइन कर लिया । नगर संवाददाता थी तो तो रोज़ मेरे नाम से रिपोर्टस छपने लगीं । तब हमारा दफ्तर ग्रेटर कैलाश में था । एक दिन रिसेप्निस्ट ने मुझे बाहर बुलाया कि कोई मिलने आया है देखा तो डेविड था । डेविड बहुत खुश था कि मैं फिर से अखबार में नौकरी करने लगी हूं । कहने लगा दीदी मैं आपकी रिपोर्टिंग में मदद करूंगा । दीदी का नाता उसने कैसे जोड़ लिया मुझे समझ नहीं आया  मैं तो वीर अर्जुन में उससे ज्यादा बात भी नहीं करती थी । तुम मेरी मदद करोगे  ? हां दीदी क्यों नहीं मैं सब जानता हूं कहां और कैसे अपराध हो रहे हैं ? कहां क्या धंधे चल रहे हैं ? , पुलिस क्या करती है ?। मुझे बहुत भरोसा तो नहीं हुआ । मैंने उसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया ।   लेकिन फिर डेविड हमें अच्छी स्टोरीज़ देने लगा । अंदर की खबरें वही दे सकता है जो खुद इससे पूरी तरह वाकिफ हो ।  लेकिन वो खुद बहुत परेशान भी रहता था कहता था दीदी मैं अपराध की दुनिया से अपना पीछा छुड़ाना चाहता हूं लेकिन पुलिस है कि मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती । वो जहांगीर पुरी में रहा करता था । कहता मेरे इलाके मैं पुलिस की मुखबिरी करने वालों की आंख का मैं रोड़ा हूं । और गलत धंधे करने वालों को बी मुझसे परेशानी है । अब वो अकसर ऑफिस आ जाता अपनी बाते बताता और साफ साफ बताता कि किस दिन उसने कितने की जेब काटी । तुम तो अपराधों की दुनिया से तौबा कर चुके हो फिर जेब क्यों काटते हो ? क्या करूं दीदी पेशी वाले दिन तो मुझे जेब काटनी ही पड़ती है । कोर्ट मैं जाकर हर आदमी का फिक्स है सबको देना पड़ता है आवाज़ लगाने वाले से लेकर पुलिस तक को लेकिन उतने की जोब काटता हूं जितने कोर्ट मैं देने को चाहिएं । जेबतराशी मैं मिले रूपयों मैं इससे ज्यादा होता है तो किसी गरीब को दे देता हूं या मंदिर मैं दान कर देता हूं । डेविड ने तो साफ गोई से अपनी मजबूरी बता दी लेकिन मैं सोचने को मजबूर हो गयी अपराध की दुनिया छोड़ कर एक इंसान नेकी की राह पर चल रहा है लेकिन हमारा करप्ट सिस्टम उसे फिर वहीं धकेल रहा है ।  खाकी वर्दी और सरकारी कर्मचारी अच्छे हैं या ये डेविड ? अपराधी कौन है ? क्या अपराध मिटाने के लिए बनी एजेंसियां खुद अपराध को बढ़ावा नहीं दे रही हैं ?
  डेविड अक्सर आता रहता अपने दुख भरे किस्से भी सुनाता रहता । पुलिस उसे जब तब उठा कर ले जाती थी उसने वीर अर्जुन की नौकरी भी छोड़ दी ताकि अनिल नरेंद्र जी की बदनामी ना हो । फिर एक दिन वो मेरे पास आया उस दिन वो खबर नहीं लाया था  बहुत मायूस सा था बोला दीदी आप मेरी मदद करोगी ? अब तक मेरा उसके साथ स्नेह संबंध जुड़ चुका था । क्यों नहीं  बोलो तो सही । कहने लगा दीदी मैं सब्जी की दुकान खोलना चाहता हूं आप मुझे कुछ रूपए दे देंगीं ? मैने उसके हाथ मैं एक अच्छा अमांऊंट थमा दिया। और फिर बहुत दिन तक ना उसका कोई  फोन आया।
और ना ही वो आया। मैंने भी  ये सोच कर उससे संपर्क नहीं किया कि अपनी नयी नयी दुकान जमा रहा होगा।  इस बीच हमारा दफ्तर भी ग्रेटर  कैलास से कनॉट प्लेस आ गया औऱ कईं महीने बाद वो आया तो मेरे लिए तरबूज खरबूजे खीरे और ककड़ी लेकर। मुझे बहुत खुशी हुई कि उसका काम जम गया। मेरे लिए  जो सौगात लाया, वो मेरे प्रति आभार जताने का उसका एक तरीका था। मैं अभिभूत  थी कि चलो डेविड की ज़िदगी पटरी पर तो आ गयी। फिर उससे बरसों कोई संपर्क नहीं रहा।
ज़ी न्यूज़ मैं मेरी एक रिपोर्ट देख कर एकदिन वो फिर मिलने आया था खुश था ।
अब कहां है पता नहीं ।

             

बुधवार, दिसंबर 1

गुलाबो मौसी

टीवी पर एक खबर चल रही थी मुंबई में राष्ट्रीय किन्नर संघ के अध्यक्ष गोपी अम्मा की हत्या के आरोप में उन्ही की शिष्या आशा अम्मा पकड़ी गयी । मामला प्रोपर्टी का था । किन्नर जो कि खुशी  के मौके पर हर घर में आकर नाचते गाते हैं अब बहुत से अपराधों में पकड़े जाने लगे हैं । कभी किसी को जबरन पकड़ कर हिजड़ा बनाने के आरोप में तो कभी आपसी लड़ाई झगड़े औऱ  लूटपाट के आरोप में पकड़े गए । सड़क पर चौराहों पर जब लाल बत्ती होने पर गाड़ी रूकी रहती है तो सजे धजे किन्नर मांगने आ जाते हैं । मंदिरों के बाहर भी किन्नर मांगते रहते हैं । मैं कभी  भी किसी किन्नर को खाली हाथ नहीं जाने देती । कुछ रूपए उनकी  हथेली पर ज़रूर  रखती हूं । कई बार राह में यूंही चलते फिरते मिल जाते हैं तो भी उन्हें पैसे ज़रूर देती हूं। 

मैं जब भी किन्नरों को देखती हूं मुझे गुलाबो मास्सी याद आ जाती है । गुलाबो मास्सी की बहुत मीठी यादें मेरे साथ जुड़ी हैं । मुझ से ही क्यूं हमारे मौहल्ले के हर बच्चे को आज भी  गुलाबो मास्सी की याद है । गुलाबो मास्सी का सूचना केंद्र तो हम सब बच्चे ही होते थे । हमारे मौहल्ले में 16 घर थे सबके 6 या सात बच्चे थे बस मैं और मेरी बहन ही दो थे । हमारा मौहल्ला एक बड़े परिवार की तरह था । सब बच्चे मिल कर बहुत उधम काटते थे । 

गुलाबो मास्सी जब अपनी टोली के साथ आती तो उनका ढोलक वाला ज़ोर से अपनी ढ़ोलक पर थाप देता और वो ताली बजातीं । हम सब बच्चे भाग कर गुलाबो मास्सी के पास पंहुच जाते । हमारे मौहल्ले में घुसते ही पीपल का पेड़ था और वहां बैठने की जगह भी बनी हुई थी गुलाबो मास्सी अपनी टोली के साथ वहां बैठ जाती हम सब को लाड़ दुलार करती । फिर वो पूरी सूचनाएं लेती किस के घर बेटा हुआ , किसके बेटे की शादी हुई , या किसकी बेटी अपने मायके डिलीवरी  कराने आई हुई  है । अपने मौहल्ले तो क्या पूरे शहर  की  खबर  हम मास्सी को बता देते। 

फिर वो पूछतीं,  'कुड़े तेरी  मां ने की चाढ़या '  ए लड़की तेरी मां ने आज क्या खाना बनाया है । हम बता देते फिर वो कह जाती कि आज मैं तुम्हारे घऱ खाना खांऊगी । उनका सबके साथ अपनेपन का नाता था मास्सी यानि मौसी हमारी मां की बहन यही संबोधन उन्हें सब देते थे ।  कभी  किसी से लडती नहीं थीं , ना ही किन्नरों जैसी अश्लील हरकतें करतीं थीं । अगर किसी ने कहा कि आज नहीं अगले हफ्ते नाचने आ जाना तो वो मान जातीं । कभी नेग को लेकर उन्होने विवाद नहीं किया हां सूट ज़रूर मांगती थी. उनके ढ़ोलक वाले के कपड़े भी कभी कभी मांग लेतीं । वो सबकी माली हालात के बारे में जानती थीं, इसलिए हैसियत देख कर नेग लेतीं कभी ज्यादा की जिद नहीं करती।

अगर मैं कहूं कि गुलाबो मास्सी किसी सदगृहस्थ महिला जैसी थीं तो इसमें कोई अति श्योक्ति नहीं  होगी   । सब महिलाओं के साथ बहुत अच्छा संबंध  रखती दुख सुख में आती जाती । हम बच्चों से तो एक विशेष रिश्ता था सूचनाएं तो सभी हम से ही मिलती थीं । गुलाबो मास्सी पिंजौर से आया करती थीं उनका बड़ा सारा इलाका था । हम पंचकूला में रहते थे. उन्होनें जिन बच्चों के पैदा होने में नाचा उनके बच्चों के पैदा होने पर भी वही आती थीं । जो अपने घर में नचवाता था वो हम बच्चों से ही कह देता-जाओ सबके घर सददा यानि बुलावा दे आओ .

हम आनन फानन में सबको बुला लाते . तब तक उनकी टोली चाय पानी पीती । 10 -15 निनट में सब महिलाएं उनके लिए आटा , चावल चीनी और नेग लेकर पहुंच जातीं । और वो मन लगा कर नाचती उनकी टोली के अन्य किन्नर भी नाचते पंजाबी गाने , फिल्मी गाने . और उनका ढ़ोलक बजाने वाला तो लाजवाब था । बहुत अच्छी ढ़ोलक बजाता । जब तक वो जीयीं उनके साथ वही रहा।

मेरी बुआ की बेटी अरूणा  भी बहुत अच्छी ढ़ोलक बजाती है . गर्मियों की छुट्टियों में वो आयी होती तो ढ़ोलक वाले के पास बैठ कर और अच्छा  बजाना सीखती    और हंसी में कहती थी अगर मुझे बड़े होकर नौकरी ना मिली तो मैं भी आप लोगों की टोली में ढ़ोलक बजाऊंगी । गुलाबो मास्सी मुझे रख लोगी ना ? और सब हंस देते। और फिर बारी आती बच्चे को लोरी सुनाने की .

किन्नर नवजात शिशु को अपनी गोद में लेकर दूध पिलाने का अभिनय करते और साथ ही गाते ---' घर जाण दे री लाला रोवे मेरा' यानि अब मुझे घर जाने दो मेरा बच्चा रो रहा है । गुलाबो मास्सी नवजात शिशु को अपनी गोद में लेकर एक पीढ़े  पर बैठ जाती    और अपने आंचल से बच्चे को ढ़क दूध पिलाने का अभिनय करती । उस समय उनके चेहरे पर किसी ममतामयी मां जैसे भाव  होते। आंखे थोड़ी नम हो जातीं । हम छोटे थे लेकिन जैसे अपनी मां की आंखों की भाषा समझ सकते थे वैसे ही गुलाबो मास्सी की आंखो और चेहरे के भाव भी पढ़ लेते थे।

अब जब उनका वो चेहरा आंखों के सामने आता है तो महसूस होता है कि उस समय उन्के दिल को अपने किन्नर होने का कितना दुख होता होगा । शायद   मातृत्व का कुछ पल का वो सुख  वो सुखद अहसास उन्हें भावुक बना देता था । दुलाबो मास्सी की गोद में अपना बच्चा सौंपने में   किसी को   ज़रा भी  संकोच नहीं होता था । और फिर बच्चे को गोद में लिए लिए ही वो सबसे नेग लेती । और फिर बच्चा अपने ढ़ेरों आशीर्वादों के साथ मां , दादी या नानी की झोली में डाल देतीं अगर उनसे कोभ कहता गुलाबो आज तो तू थोड़ा ही नाची तो वो कहती लो और नाच देती हूं।

वो सबको खुश करके जातीं औऱ जाते जाते  वो  नेग में मिले चावलों के दानों से अपनी   मुठ्टी भर  लेतीं   औऱ गातीं --- तेरे कोठे उत्ते मोर तेरे मुंडा जम्मे होर साल नूं फेर आंवां ( तेरी छत पर मोर है , तेरे एक बेटा और हो और अगले साल मैं फिर बधाई गाने आऊं )  वो कईं बार पूरे सुर ताल में अपनी मंडली के साथ यही लाईन गातीं जातीं और चावल के दाने घर की तरफ डालती जातीं । तब तक फैमिली प्लानिंग का रिवाज़ नहीं था । औऱ हंसते मुस्कुराते वो लौट जातीं।

पहले वो बस में आया करती थीं फिर उन्होने एक मारति कार खरीद ली और उसी में आया करतीं । गुलाबो मास्सी ने हम सब को बड़े होते देखा , सबकी शादी होते और फिर बच्चे होते देखे । पढ लिख कर मैं नौकरी करने दिल्ली आ गयी मेरी बहन के बेटा हुआ तो वो खुशी के मारे पागल हो गयी । क्योंकि हमारा कोई भाई नहीं था खूभ नाच कर गयीं नेग लेकर गयीं । जब कभी  मैं दिल्ली से  घर जाती और वो किसी के यहां बधाई गाने आतीं तोमैं उनसे जाकर ज़रूर मिलती और वो  खूब प्यार दुलार करतीं । आजकल जब किन्नरों की हरकतों के बारे में पढ़ती हूं तो मन दुखी  हो जाता है।

किन्नरों की कमाई भी अब कहां रही . हम दो हमारे दो और बच्चा एक ही अच्छा के नारे ने उनकी आमदन तो खत्म कर ही दी है बढ़ते शहरी करण में उनके इलाके भी शायद वैसे सुरक्षित नहीं रहे जैसे पहले हुआ करते थे । वसंत विहार में रहने वाले हमारे एक मित्र ने बताया कि उनकी विशाल कोठी में जब व्हाईट वाश हुआ तो इलाके के किन्नर नेग मांगने आगए कहने लगे आपका बेटा तो शादी करता नहीं फिर कोठी की पुताई का ही नेग दे दो।

अब कुछ किन्नर अपने काम धंधे में भी लगने लगे हैं । और कुछ अपराध की दुनिया में चले गए हैं । लेकिन मेरे मन में तो बचपन से ही एक छवि है ममता मयी गुलाबो मास्सी की वो अब इस दुनिया में नहीं रहीं लेकिन उनकी याद मैं कभी  भुला नहीं पाऊंगी । महानगरीय जीवन में किन्नर तो क्या अपने पड़ोसी से भी हम ऐसा नाता नही जोड़ पाते हैं जो हमारे पूरे मौहल्ले के छोटे से कस्बे  का  गुलाबो मास्सी के साथ था।

मंगलवार, नवंबर 30

तब की शादी, अब की शादी

सर्जना शर्मा

 आजकल शादियों का सीज़न है ।
इस साल बहुत सारे शुभ मुहुर्त हैं । मेरे नाते रिश्तोदारों और मित्रों के यहां भी  शादियां हो रही हैं । जब छोटे थे तो शादी का नाम सुन कर बहुत मज़ा आता था एक स्कूल से हफ्ता दस दिन की छुट्टी उपर से नए कपड़े और फिर नाते रिश्तेदारी में जा कर जो मजे आते उसका तो कहना ही क्या । मेरी मां अपने पांच भाई बहनों में सबसे छोटी हैं इसलिए मेरी मौसी और मामा की बेटियों और बेचों की शादियों में जितने मज़े हमने लूटे शायद ही किसी ने लूटे हों । एक तो नानी , मामा , मामी मौसी और मौसा का लाड़ दुलार और फिर हमारी मां की क्या हिम्मत कि अपने बड़े भाई बहनों के सामने हमें डांट दें या एक दो थप्पड़ रसीद कर दें । फिर सात सात दिन पहले बान ( हल्दी की रस्म )  शुरू हो जाती और रात को गीत होते जिस पर ढ़ोलक की थाप पर ब्याह के लोक गीत गाए जाते । पांवों में घुंघुरू बांध कर महिलाएं खूब नाचतीं । खूब बन्नियां गायीं जातीं । घर में ही हलवाई बैठता था । मिठाइयां बनती देखते । और लड़की शादी में तो दुल्हन के खास चहेते बने रहते । क्योंकि उनदिनों में जिसकी शादी होती थी उसे कंगना बंधने के बाद घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती थी । और वो एक कमरे में बैठीं रहती जहां देवताओं का थापा लगता था और चौबीस घंटे दिया4 जलता रहता था । उनके काम करने में बहुत मज़ा आता । और अपने को थोड़ा वीआईपी भी महसूस होता क्यों कि जिसकी शादी है वो वीआईपी तो फिर हम जब उनके आगे पीछे घूम रहे हैं तो हम भी वीआई पी । लेकिन कबी खबी हम देखते कि जिसकी शादी है वो रोती रहतीं और खाना नहीं खाती थीं मायका छूटने का दुख जो रहता । फिर सारे परिवार की महिलाएं उनकी मनुहार करतीं उन्हें समझातीं कि कुछ तो खा लो पराए घर जाना है । अपनी सेहत ठीक  रखों । घऱ को सजाने के लिए उन दिनों रंगबिरंगे गुड्डी  कागज़ की बंदनवार से घर सज जाता लाल नीला हरे रंग का शामियाना लगता पत्तल और मिट्टी के सकोरे आते । पूरा परिवार इन्हीं में खाता  पिता । मिट्टी के सकारे में जब पानी डाला जाता तो उसकी खुश्बु मुझे बहुत अच्छी लगती ।
                              बारात आती तो शोर मच जाता नस्सो (नौशा)  गया बन्ना आ गया । हम बच्चे तो भागे चले जाते और फिर घर आ कर पूरी सूचना महिला मंडली को देते हमसे हमारी नानी ,मामी मौसियां और बड़ी बड़ी बहने जिन्हें बारात के सामने जाने की अनुमति नहीं थीं बेसब्री से हमारा इंतज़ार करतीं और बारात के बारे में पूरी जानकारी लेतीं बन्ना कैसा है कितने लोग आए देखने में सब कैसे हैं कोई लड़की भी आयी क्या । उनदिनों उत्तर प्रदेश में महिलाएं बारात में नहीं जाती थीं केवल आठ दल साल तक की लड़कियों को भी मुश्किल से बारात में लाया जाता था । बारात एक या दो दिन रूकती थी और जनवासे में बारात की खूब खातिरदारी की जाती औऱ घर आने पर भी । जिस दिन फेरे होते उस दिन घर की सबी महिलाओं का व्रत होता था । और सबकी आंखें भीगीं रहती इधर उधर चलते फिरते अपनी साड़ के पल्लु से आंखें पोंछती रहती हमें बहुत अटपटा लगता कि शादी का दिन तो खुशी का दिन है ये रो क्यों रही हैं । अब समझ आता है कि वेटी को विदा करने का दुख आंसू बन कर बहता रहता था । बारात आने से पहले ऱघ तो क्या पूरे गांव को आदमी खानी नहीं  खाता था क्योंकि बेटी की शादी है । बारात की अगवानी में सभी रिश्तेदार और सारा गांव मौजूद रहता । और बारात को बिठा कर अच्छे से खाना खिलाया जाता . तब हलवाई होता था कैटर्रस नहीं बायरे नहीं होते थे लड़की पक्ष बारात की खातिरदारी स्वयं करता । और रात बारह8 बजे के बाद सप्तपदी शुरू होती । जिसमें कम से कम पांच से छह घंटे लगते। फेरे पूरे होने पर दुल्हे को उस कमरे में लाया जाता जहां देवताओं और पितरों के थापे लगे रहते । फिर दुल्हे से छन सुने जाते । दुल्हा दुल्हन कंगना खेलते औऱ इस सब में कईं बार तो सुबह हो जाती थी । फिर विदाई से पहले की भी बहुत सी रस्में होतीं . हमारे परिवार में विदाई से पहले पलंग पुजाई की रस्म होती है । इसमें दुल्हन और दुल्हे को पलंग पर बैठाया जाता है । वधु पक्ष की सभी विवाहित महिलाएं अपने पति के साथ दुल्हा और दुल्हन की लक्ष्मी जी और विश्णु जी के रूप में पूजा करती हैं ।  दुल्हन अपने हाथों से सबको धान देती रहती है और जोड़ी समेत सब उनके पलंग के इर्द-गिर्द परिक्रमा करते हैं और धान से उनके पांव पूजते हैं दुल्हे को टीका किया जाता है जिसमें शगुन और  सूखा नारियल दिया जाता है और उसके बाद परिवार के सभी दामादों का भी टीका किया जाता है ।
                                      और सबसे मार्मिक होती थी विदाई की बेला । बैंड वाले धुन बजाते बाबुल की दुआएं लेती जा , जा तुझको सुखी संसार मिले और सबकी आंखों से गंगा जमुना की धारा बहती रहती और विदा हो रही बेटी तो सबसे लिपट लिपट कर रोती रहती ।
       लेकिन अब शादी के तौर तरीके पूरी तरह से बदल गए हैं । अब किसी के पास समय ही नहीं है कि सात दिन या दस दिन पहले चला जाए । अब तो बारात भी कुछ घंटों की होती है । शहर के शहर में शादी है तो बस जाओं और खाना खार आ जाओं और शगुन दे आओ । अब ना बारातियों की कद्र है ना ही घरातियों की । शादियों में  शान शौकत सजावट पर ज़ोर है रस्मों रिवाज़ पर नहीं । खाने पीने के स्टॉल ज़रूर बढ़ गए हैं लेकिन मनुहार करने वाला कोई नहीं सब अपने में व्यस्त । महिलाओं पर तो एकता कपूर के सिरीयलों का असर साफ दिखाई देता है । एकता कपूर ने महिलाओं के परिधान और साज सज्जा में अभूतपूर्व परिवर्तन किया है । ब्यूटी पार्लरों , नकली ज्यूलरी , चूड़ी बिंदी वालों की तो चांदी ही चांदी है । आप खरीद नहीं सकते तो कोई बात नहीं किराए पर ले लिजिए . सब कुछ मिलता है एक से एक  लहंगें साड़ी नकली गहने । औऱ ये प्रभाव शहरों में ही नहीं गांवों में भी साफ नज़र आ रहा है ।

  शहनाई के मधुर स्वर और बैंड की जगह अब डीजे ने ले ली है । इतनी  ज़ोर ज़ोर से बजता है कि कान को कान सुनाई नहीं पड़ता । और फिर खाना है बूफे . खाने की आइचम चाहे पचास सौ हों लेकिन प्लेट तो एक ही है । आप अपना पर्स संभालिए , साड़ी संभालिए , बच्चे संभालिए या फिर खाने की प्लेट । अबी हाल ही में मैं अपनी भतीजी की शादी में गांव में गयी वहां भी बूफे था । एक लड़का अपनी प्लेट में प्लास्चिक के ग्लास में रख कर रायता लाया था । उसका संतुलन ज़रा सा बिगड़ा तो सारा रायता उसके थ्री पीस सूट से होता हुआ जूतों तक पर गिर गया । अब बेचारा शर्मा गया और आस पास खड़े सब लोग ज़ोर ज़ोर से हंसने लगे । ये तो एक किस्सा है मुझे ना जाने कितने लोग सुना चुके हैं कि शादी के किस भोज में कैसे उनकी साड़ियां खराब हो चुकी हैं कभी  उनकी अपनी प्लेट का संतुलन बिगड़ जाता है तो कभी कोई दूसरा उनके  कीमती वस्त्रों का कल्याण कर देता है ।
कई शादियों में तो मैनें देका है कि छोटे बच्चों वाली महिलाएं फ्लेट ले कर ज़मीन पर ही बैठ जाती हैं और अपने बच्चों  को खाना खिलाती हैं । पश्चिम  की अंधाधुंध नकल ने शादी ब्याह का मज़ा छोड़ा ही नहीं है । दुल्हा दुल्हन में लोगों की कम ही रूचि रहती है दिल्ली में भी  ना जाने कितनी शादियों मैं जाना होता है । पंहुचते ही सबसे पहले लोग खाने का मीन्यू देखते हैं । खाया पीया शगुन हाथ में थमाया और चलते बने । लड़की की शादी है तो बारात के आने का इंतज़ार भी नहीं करते । फेरे तो बहुत दूर की बात है । लड़की पक्ष के लोग ही खाने के पंडाल में घमासान मचा देते हैं । खईं बार तो प्लास्टिक के गिलासों और पेपर प्लेटों से पंडाल की सूरत बिगड़ सी जाती है मैं सोचती हूं कि क्या बारात का स्वागत इन जूठी पड़ी प्लेटों से होगा क्या बारात बची खुची जूठन खायेगी ।
                             
   जयमाला तक ही लोग रूक जाएं तो गनीमत उस में भी  दुल्हा दुल्हन कईं बार मंच पर बेगाने से बैठे रहते हैं क्योंकि बाराती घराती खाने पीने  और कानफोडू डीजे पर नाचने में मस्त रहते हैं । विवाह की सबसे महत्वपूर्ण रस्म फेरे यानि सप्तपदी अब सबसे गौण रस्म रह गयी है । यहां तक कि अपने सगे नाते रिश्तेदार भी फेरों के लिए रूकना पसंद नहीं करते । अभ की शादियां देखती हूं तो मेरे बचपन कि वो तस्वीरें जाता हो उठती हैं जब पूरा घर परिवार बरात पर न्यौछावर हुआ जाता था । हमारी मां नानी , मामी , मौसियां सब फेरे पूरे होने के बाद ही चायपीतीं या कुछ खाती थीं ।     आप शायद सोच रहे होंगें कि ज़माना कहां चला गया और मैं कितनी पुराने ढ़र्रे की बातें कर रही हूं । लेकिन आप सब को अगर मेरी बात पर आपत्ति ना हो तो एक बात कहना चाहूंदू कि हम उतेतर भारतीय अधकचरी संस्कृति में जी रहे हैं । अपने दक्षिण भारतीय, बंगाली और मैथिल ब्रह्माणों की की शादियों में मैने परंपरा और रिती रिवाजों का पूरा पालन होते देखा है । खई ंमामलों में तो दुल्हा दुल्हन दोनों विदेशों में पढ़े लिखे थे और वहीं नौकरी कर रहे थे   । लेकिन परंपरा और रीति रिवाज़ से कोई समझौता नहीं ।  मेरे ऑफिस में मेरी एक सहकर्मी की शादी हुई हांलांकि वो पंजाबी है लेकिन लड़का तमिल ब्रह्माण है । विवाह दिन में हुआ , दक्षिण भारतीय विधी विधान से          हुआ . शहनाई और नाद स्वरम से हाल गूंज रहा था । मेहमानों का कुंकुम और हल्दी से स्वागत किया जा रहा था महिलाओं को चमेली और मोंगरे के गजरे दिए गए औऱ शादी की दावत तो बस क्या कहने । सप्तपदी के बाद  केले के पत्ते पर सात्विक  भोजन परोसा गया औऱ मान मुहार के साथ भोजन कराया गया ।     दक्षिण भारतीय इसे भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी का मिलन मानते हैं इसलिए भोजन शुद्ध शाकाहारी रहता है ।
                            विवाह सनातन परंपरा के सोलह संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है । विवाह को दो व्यक्तियों का नहीं बल्कि दो आत्माओं का आध्यात्मिक मिलन माना गया है । ऋग्वेद  औऱ  अथर्ववेद के विवाह सूक्त के आधार पर हमारे ऋषिमुनियों ने विवाह पद्धति बनायी । विवाह  पद्धति   उतनी ही पुरानी है जितना हमारा सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद । ऋग्वेद के दसवें मंडल का 85 वां सूत्र औऱ अथर्ववेद के 14 वें कांड का पहला सूत्र विवाह सूक्त कहलाता है ।   औऱ विवाह एक सामाजिक , धार्मिक अनुष्ठान है । दो व्यक्ति अपना जीवन एक साथ बिताने जारहे हैं । गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने जा रहे हैं । गृहस्थ आश्रम को श्रेष्ठ    माना गया है । दुनियावी ज़िम्मेदारियों के साथ धर्म की राह पर चलते हुए जीवन यापन । जीवन की उंची नीची राहों पर एक साथ चलने, एक बंधन में बंधने के मौके पर सबसे अहम है सप्पदी और दुख की बात है कि इसी पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है । वर पक्ष कईं बार तो पंड़ित जी से कहते सुना जाता है पंड़ित जी बस आदे घंटे में फेरे करा दो । एक पूरा अनुष्ठान जिसका एक एक मंत्र मह्तवपूर्ण है । जिसकी एक एक रस्म महत्वपूर्ण है । जो एक मस्त युवक को एक जिम्मेदार पति और एक अल्हड़ युवती को एक ज़िम्मेदार पत्नी बनाती है वही सबसे ज्यादा उपेक्षित क्यों । मैं आजकल अपने चैनल पर एक कार्यक्रम बना रही हूं विवाह मंथन । इसके तहत मुझे बहुत रिसर्च करनी पड़ती है । मैनें भी बहुत शादियां देखी लेकिन मुझे भी पूरी तरह से विवाह की रस्मों का ज्ञान नहीं ता लेकिन अब जब मैनें सप्तपदी के बारे में पढ़ा तो मैं  हैरान रह गयी कि सप्तपदी एक युवक और एक युवती को केवल पति पत्नी नहीं बनाती उन्हें सखा भी बनाती है । और विवाह सप्तपदी का हर पद महिला के परिवार में ऊंमचे दर्जे मान सम्मान का प्रतीक है और सातंवां पर पूरा होने पर दोनों सखा बन जाते हैं सातवें पद में वर वधु से कहता है ---- ऊं सख्ये सप्पदा भव सा मामनुव्रता भव।
यानि
हे देवि सातवां चरण तुम मित्रता के लिए उठाओ , मेरा जीवन व्रत अपनाओ , घर को स्वर्ग बनाओ ।
                                                                                                                                          आप ये भी जान लिजिए कि केवल सप्तपदी ही उन्हे जीवन साती नहीं बना देती वधु भी दुल्हे से सात वचन लेती है और तब जाकर उसके वाम अंग में बैठती है । विवाह जैसे महत्वपूर्ण अवसर को हमने केवल एक तमाशा बना कर रख दिया है । विवाह के अवसर हम दिखावे के बजाए अगर परंपरा निभाएं तो बेहतर होगा । भव्य पंडाल , खाने का लंबा चौड़ा मीन्यू कान फोडू डीजे के बजाए इसे एक पारिवारिक सामाजिक उत्सव की तरह ही मनाएं तो शादियों में वैसा ही आनंद आने लगेगा जैसा 60 , 70 और 80 के दशक में आया करता था । छोटे पर्दे के सीरीयलों की शादियों की नकल भी अंधाधुध हो रही है । बड़े बड़े उद्योगपति तो अब बॉलीवुड स्टार्स को बुला कर अपनी शादियों की शान बढ़ा रहे हैं इस पर करोड़ों रूपए खर्च कर रहे हैं और मिडल क्लास का आदर्श अमीर वर्ग रहता ही है वे बालीवुड स्टार नहीं बुला पाते तो कुछ ऐसे ऑर्केस्ट्रा बुलाते हैं जिनमें आइटम  गर्ल्स होती हैं । ये कहीं ना कहीं सामंतवादी प्रवृति का प्रतीक भी है । इक्सवीं सदी में जब बहुत कुछ बदल रहा है तो अपनी परंपराओं और संस्कृति को सहेजे रख कर हम आगे बढ़े तो बेहतर होगा ।
                                                                                                             
                                                                                                                          

रविवार, अक्तूबर 31

नर्मदा का नाद

विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक नर्मदा घाटी आज भी समृद्ध प्रकृति के लिए मशहूर है. घाटी में नदी किनारे पीढ़ियों से बसे हुए आदिवासी तथा किसान, मजदूर, मछुआरे, कुम्हार और कारीगर समाज प्राकृतिक संसाधनों के साथ मेहनत पर जीते आए हैं.
मेधा पाटकर

इन्हीं पर सरदार सरोवर के साथ 30 बड़े बांधों के जरिये हो रहे आक्रमण के खिलाफ शुरू हुआ जन संगठन नर्मदा बचाओ आंदोलन के रूप में पिछले 25 वर्षों से चल रहा है. विश्व बैंक को चुनौती देते हुए उसकी पोल इस आंदोलन ने खोली है. तीन राज्यों और केंद्र के साथ इसका संघर्ष आज भी जारी है.

सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में दो लाख लोग बसे हैं. ये लोग वर्ष 1994 से डूबी जमीन के बदले जमीन के लिए लड़ रहे हैं. हजारों आदिवासी, बड़े-बड़े गांव और शहर, लाखों पेड़, मंदिर-मसजिद, दुकान-बाजार डूबे नहीं हैं, पर 122 मीटर की डूब में धकेले गए हैं. बड़े बांधों से समूचे घाटी के पर्यावरण को नुकसान के साथ लाखों लोगों का विस्थापन तो हुआ ही है, यह इस देश की धरोहर नर्मदा, वहां की उपजाऊ जमीन, जंगल और नदी के साथ भी खिलवाड़ है. सरदार सरोवर की लागत 4,200 करोड़ से बढ़कर 70,000 करोड़ रुपये हो गई. इसके बावजूद सिंचाई के लिए पानी और बिजली की बहुत कम उपलब्धता है, कच्छ-सौराष्ट्र को पानी का अपेक्षित हिस्सा भी नहीं मिलता, तो फिर विनाश क्यों?

नर्मदा बचाओ आंदोलन ने अपने 25 वर्षों के अनुभव से देश बचाओ आंदोलन तक का संकल्प लिया है. नर्मदा घाटी आदिमानव का जन्म स्थान है. सतपुड़ा-विंध्य की पहाड़ी में बसे आदिवासी और निमाड़ के मैदानी गांव के लोग नर्मदा को मां मानकर उसी के सहारे उपजाऊ खेती या विविध पहाड़ी पैदावार और वनोपज के साथ जी रहे हैं. निमाड़ की धरती को पूंजी के चपेट से बचाने की तमन्ना वहां के किसानों में आज भी है.

यहां के आंदोलनकारियों ने आज भी कुछ पहाड़ियों पर जंगल बचा रखे हैं. इन लोगों ने 25 वर्षों के इस संघर्ष में पत्थर भी हाथ में नहीं लिया, वे सत्याग्रह को ही हथियार मानते रहे.

नर्मदा घाटी की लड़ाई विकास-विरोधी नहीं, बल्कि सही विकास के लिए है. यहां बन रहे या कुछ बन चुके 30 बड़े बांधों में से एक बांध में 248 छोटे ओर बड़े आदिवासी और किसानी गांवों की आहुति देकर, लाखों पेड़, जंगल, पक्के मकान, स्कूल, बाजार आदि खोकर भी किसे लाभ हो रहा है और कितना, यह सवाल इस आंदोलन के जरिये खड़ा किया गया. तब जाकर जापान, जर्मनी, कनाडा अमेरिका की कुछ संस्थाओं और विश्व बैंक को पुनर्विचार करते हुए अपना हाथ और साथ वापस खींचना पड़ा. वर्ष 1993 में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, जनशक्ति के साथ, हर मोरचे पर खड़ा हुआ यह आंदोलन पुनर्वास तथा पर्यावरण को होने वाले नुकसान को सही साबित करता गया. लेकिन महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात की सरकारों, ठेकेदारों और नौकरशाहों ने बांध नहीं रोका. आखिर सर्वोच्च न्यायालय को उसे 1995 से 1999 तक रोकना पड़ा. फिर वर्ष 2000 से आगे बढ़ा महाकाय बांध आज भी रुका है.
तमाम बाधाओं के बीच भी नर्मदा घाटी के लोगों ने हिम्मत और प्रतिबद्धता के साथ अपने गांव और खेती बचाकर रखी है.

आज 40,000 से अधिक परिवार डूब क्षेत्र में रह रहे हैं. वर्ष 1993 से 1997 तक डूब चुकी आदिवासियों की जमीनें और गांव सुबूत हैं कि विनाश कितना भयावह होता है. लड़ते-झगड़ते और लाठी-गोली खाते महाराष्ट्र और गुजरात में कुल 10,500 आदिवासी परिवारों को तो जमीनें मिल गईं, लेकिन तीन राज्यों में आज भी हजारों परिवारों के पास रहने के लिए जमीन नहीं है.

नर्मदा घाटी की एक ऐसी प्राचीन संस्कृति को बरबाद करने की साजिश है, जो अपने आप में अनूठी है. यहां इतनी ईमानदारी है कि लकड़ी चाहे कटी हुई क्यों न पड़ी हो, उसकी चोरी नहीं होती थी. यहां के एक भी प्रतिशत लोग बाहर मजदूरी करने नहीं गए और नर्मदा किनारे के जल, जंगल, जमीन, मछली से ही अपनी जरूरतों की पूर्ति करते रहे. आज भी नर्मदा तट के आदिवासी घरों में 90 प्रतिशत चीजें बाजार से नहीं, जंगल से आती हैं. अपना हल खुद बनाने वाले यहां के किसान खेती के औजारों में लोहे का इस्तेमाल शायद ही करते रहे हों.

आजादी के बाद दशकों तक यहां के गांवों में शायद ही सरकारी स्कूल ढंग से चले हों. तब ग्रामीणों ने अपनी पाठशालाएं शुरू कीं. आज क्षेत्र में असंख्य पढ़े-लिखे बच्चे हैं, हालांकि इन्हें बाजार, शासन-प्रशासन तथा साहूकारों की लूट से पूरा छुटकारा नहीं मिला है. अपने वनोपज पर अधिकार होने के बावजूद उन्हें इसके सही दाम नहीं मिल पाए. दूसरी तरफ निमाड़ का मैदानी क्षेत्र फलोद्यान और समृद्ध खेती से पहचाना जाने वाला किसानी इलाका है. पिछले 20 वर्षों से भी अधिक समय से नर्मदा की जल संपदा से यहां के खेतों को उर्वर बनाते हुए अब अनेक किसान जैविक खेती पर भी उतर आए हैं, क्योंकि यह समय की मांग है.

यहां के आदिवासी-पहाड़ी पट्टी के हजारों परिवारों ने अपनी जमीन बेचने के बारे में कभी सोचा नहीं, लाखों का लालच भी उन्हें डिगा नहीं सका. निमाड़ के कृषि बाजार से जुड़े कुछ लोगों को दलालों ने फंसाया, तो उसमें भी करोड़ों के भ्रष्टाचार की पोल खोली गई. विस्थापित परिवारों के अनेक युवा नर्मदा बचाओ आंदोलन में लगातार सक्रिय हैं और कभी गले तक पानी में, कभी पुलिस के हमले के सामने और कभी अन्य आंदोलनों को समर्थन देने के लिए सदा तैयार रहते हैं. तमाम बाधाओं के बीच भी नर्मदा घाटी के लोगों ने हिम्मत और प्रतिबद्धता के साथ अपने गांव और खेती बचाकर रखी है. अहिंसा और सत्याग्रह के आधार पर चल रहा यह जनांदोलन यहां के लोगों के लिए जीवन का हिस्सा ही बन गया है.

रविवार से साभार