मंगलवार, अगस्त 30

मोहे कपट, छल छिद्र ना भावा...



सर्जना शर्मा

            जन्माष्टमी से दो दिन पहले अखबार के साथ एक सुंदर सा रंगीन हैंडआऊट भी आया । ये हमारे इलाके के सनातन धर्म मंदिर के श्री कृष्णजन्माष्टमी समारोह के बारे में था । क्या क्या कार्यक्रम होंगें इसका पूरा ब्यौरा ,आयोजकों के नामों की लंबी चौड़ी सूची जैसा कि अक्सर होता ही है किसी का भी  नाम छूटने ना पाए इसकी पूरी कोशिश आयोजकों की रहती है । लेकिन इसमें एक बात जो सबसे अलग थी वो ये कि

चरणामृत सेवा ----  कमल चौधरी ( सभी नाम बदले हुए हैं )

केले का प्रसाद ------- अनुज गुप्ता

सेब का प्रसाद -----   संजय सूद

पंजीरी              ------  राज किशोर तनेजा

धनिए का प्रसाद ---    विनोद अग्रवाल

                                               और इस तरह से एक लंबी सूची थी । ऐसा मैनें तो  कम से कम पहली बार देखा कि भगवान को चढ़ाने वाले भोग का भी बखान किया जाए और बाकायदा नाम छपवाए जाएं । ये भगवान के प्रति भक्ति भाव है या जन्माष्टमी के बहाने अपने नाम का गुणगान करने की इच्छा पूर्ति । आज धार्मिक आयोजन शहर में अपनी धाक जमाने का माध्यम बन चुके हैं । व्यापारी वर्ग इसमें आमतौर पर आगे रहता है और मुख्य  अतिथी ज्यादातर बड़े पदों पर बैठे अफसर या फिर सियासी दलों के नेता होते हैं । दो साल पहले कृष्ण जन्माष्टमी का एक निमंत्रण आया . कवरेज के इरादे से भेजा गया था . साथ में दो तीन वीआईपी पास भी भेजे गए । दिल्ली में इनका जन्माष्टमी उत्सव काफी बड़ा और भव्य होता है । फिल्म जगत में बरसों अपनी सुंदरता के बल पर टिकी रहने वाली एक जानी मानी अभिनेत्री और नृत्यांगना इनके यहां नृ्त्य नाटिका प्रस्तुत करती हैं ।   वहां जो कवर करने गए और जो वीआईपी पास पर गए दोनो के ही अनुभव बहुत खराब रहे । रिपोर्टर को बैठने तक की जगह नहीं दी गयी । पानी तक नहीं पूछा और जिन्हें वीआईपी पास दिया था उन्होने आम लोगों से भी ज्यादा धक्के खाए और अंत में आम जनता के बीच में ही बैठे । लेकिन आयोजकों ने अपने लिए स्टेज के सामने बढ़िया सोफे और कुर्सियां लगवा रखी थीं । औऱ वहां एसी भी  लगवा रखे थे । खाना पीना भी बहुत बढ़िया चल रहा था क्योंकि वहां नेता और अफसर जो बैठे थे ।

                                                                 एक और सज्जन हैं, बड़े उद्योगपति हैं, निजी  कॉलेज स्कूल भी चलाते हैं. उन्होने मंदिर भी बनवा रखे हैं । साल में दो तीन बार भव्य आयोजन करते हैं जिसमें जाने माने भजन गायक , और  फिल्मी  सितारे आते हैं,  हेलीकॉप्टर से फूलों की वर्षा करवाते हैं, गायकों को लाखों रूपए देते हैं । लेकिन किसी गरीब और ज़रूरतमंद की मदद करने को कह दिया जाए तो सुनी अनसुनी कर देते हैं । बात को ऐसा टालते हैं कि पूछिए मत, टरकाने की कला भी उन्हें बहुत अच्छी आती है ।

                                                     भगवान स्वयं कहते हैं कि --"-मोहे कपट , छल छिद्र ना भावा , सरल स्वभाव सो मोही पावा "। उन्हें तो केवल भक्ति भाव चाहिए लेकिन आज धर्म के नाम पर आडंबर और दिखावा ज्यादा है । जब तन मन धन सब है तेरा , तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा का भाव इंसान के मन में सचमुच आ जाएगा तो ऐसे दिखावे करने की जरूरत ही नहीं रहेगी । त्वदीय वस्तु गोविंदं तुभ्यं समर्पयामि हमारी भक्ति परंपरा का अंग रहा है । सनातन परंपरा में मान्यता है हमारे पास जो भी है,  सब कुछ उसी परमपिता परमेश्वर और जगत जननी मां का आशीर्वाद है। जब हम उसी का उसको अर्पण करते हैं तो फिर उसका ढ़ोल क्यों पीटा जाना चाहिए ?

                                               सभी भक्ति और धर्म की आड़ में अपना प्रचार प्रसार करते हों, ऐसा भी  नहीं है । एक जाना माना बड़ा घराना है, हरिद्वार में हर  की पैड़ी उनके पुरखों ने बनवायी और मालिकाना हक भी उन्हीं का है । उन्हीं के परिवार के एक व्यक्ति ने बताया कि उनके पुरखों ने वहां अपने नाम का जो पत्थर लगवाया वो ऐसी जगह पर लगवाया कि जब लोग गंगा जी से स्नान करके बाहर आएं तो उनके चरणों में लगी गंगा जी की रज पत्थर पर लगे  ।

                                         हमारा इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है । पुरी में भगवान जगन्नाथ की मूर्तियां बनवा कर प्रतिष्ठित  करवायी थी महान प्रतापी राजा इंद्रद्युम्न ने । भगवान जगन्नाथ के कारण राजा इंद्रद्युम्न ने अपना मालवा का राज पाठ छोड़ा और सब को लेकर पुरूषोत्तम  क्षेत्र पुरी में आ गए । पुरी आज चार धामों में से एक है ।  ' जगन्नाथ  रहस्य '   किताब अगर आप पढ़ेगें तो पायेंगें कि राजा इंद्रद्युम्न ने भगवान जगन्नाथ से प्रार्थना  की थी --- मेरे कुल में कोई  ना रहे ताकि कल किसी को ये अभिमान  ना हो कि ये विशाल और भव्य मंदिर मेरे पुरखों ने बनवाया । देखा जाए तो ये भगवान के प्रति अनन्य  समर्पण है ।

भगवान राजा इंद्रद्युम्न जैसे भक्तों के भाव का आदर ना करते हो ऐसा संभव ही नहीं है । जब तक भगवान जगन्नाथ का नाम रहेगा तब तक राजा इंद्रद्युम्न का नाम भी  रहेगा । भगवान जगन्नाथ उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के विग्रह पुरी के श्री मंदिर में एक तो काठ के बने हैं दूसरे अधूरे हैं । इन विग्रहों का निर्माण राजा इंद्रद्युम्न की रानी गुंडीचा के महल में स्वयं देव शिल्पी विश्वकर्मा ने किया था । लेकिन रानी गुंडीचा ने विश्वकर्मा की शर्त का पालन नहीं किया इसलिए विश्वकर्मा अधूरे विग्रह छोड़ कर चले गए थे । लेकिन भगवान का भाव  भी देखिए भगवान जगन्नाथ ने राजा से कहा तुम मेरा मंदिर बनवा कर मुझे  इसी रूप में   स्थापित  करो । और भगवान ने राजा को वचन भी दिया कि ---"हर वर्ष मैं तुम्हारे बिंदु सरोवर पर दस दिन के लिए आऊंगा । उन दिनों में तैंतीस करोड़ देवी देवता पुरी में निवास करेंगें सारे तीर्थ भी  यहां निवास करेंगें जो गुंडीचा में मेरे दर्शन करेंगा उसे जन्म मरण से मुक्ति मिल जाएगी  "।
भगवान जगन्नाथ आज तक अपना वचन निभा रहे हैं और निभाते रहेंगें । हर वर्ष आषाढ़ के महीने में वो सुंदर भव्य और विशाल  रथ पर सवार होकर अपने भाई बहन के साथ गुंडीचा मंदिर जाते हैं । रानी   गुंडीचा को भगवान की मौसी का दर्जा दिया जाता है । और यही कहलाती है पुरी की रथ यात्रा जिसे गुंडीचा यात्रा भी कहते हैं। देश विदेश से लाखों श्रद्धालु भगवान की रथ यात्रा देखने आते हैं । भक्त के भाव में समर्पण हो तो भगवान स्वंय चल कर आते हैं ।

जब तक मैं और मेरा का भाव रहेगा तब तक भक्ति खरी नहीं हो सकती ।  जैसा कि महान कवि और संत कबीर ने कहा है -- जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं तो मैं नहीं  । सब जानते हैं कबीर ने हिंदु मुस्लिम दोनों को ही धर्म के दिखावे  पर आड़े हाथों लिया । जितना मुल्ला को कोसा उतना ही पंडित को कोसा । धर्म के प्रति उनकी अरूचि थी ऐसा भी नहीं वो केवल एक कवि नहीं महान योगी और सिद्ध भी थे  तभी  तो उन्होने कहा कि जो  मैं को खत्म कर लेगा वही  परमात्मा को पायेगा ।  मैं हमारे भीतर  का अहम है , गुमान है अपने अस्तित्व  का  । उन्होने जब अपने भीतर के   मैं को मिटाकर परम पिता परमात्मा  की शरण ली होगी तभी तो उनका ये भाव आया---- जब हरि हैं तब मैं नहीं  ।
                       भगवान को किसने कितने किलो सोना चढ़ाया किसने चांदी का विशाल छत्र चढ़ाया ऐसी खबरें टी वी और अखबारों में भी अकसर आती रहती हैं । शिरड़ी के सत्य सांई बाबा के मंदिर और तिरूपति में भगवान वैंकटयेश के मंदिर में किसने क्या चढ़ाया ये खबरे आप अक्सर देखते रहते होंगें । जिनका पहले ही बड़ा नाम और हस्ती है वो भी "मैं " के मोह से नहीं छूट पाते ।  जब वो तिरुपति बाला जी को सोना चांदी  चढ़ाते हैं तो टीवी कैमरे उन्हें फॉलो करते हैं । इस दान और चढ़ावे को गुप्त भी रखा जा सकता है ।
 कहते हैं दांए हाथ से क्या दान किया ये बांए हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए ।  

                                                                                               

                                                                               

                                                                                     

                                                     

                         

                 

बुधवार, अगस्त 24

भादो की लस्सी कुत्तो की, कार्तिक की लस्सी पूतों को



  सर्जना शर्मा
             
 भादो की लस्सी कुत्तो की, कार्तिक की लस्सी पूतों को....
   ये सुनने में केवल एक लोक कहावत लगती है लेकिन इसके बहुत गूढ़ अर्थ हैं । और ये सीधा सीधा हमारी सेहत से जुड़ा है । हिंदू कैलेंडर का छठा  महीना भादों बरसात के दो महीनों में से एक है । सावन की रिमझिम बारिश में चारों और हरियाली की चादर फैली होती है तो भाद्रपद महीने की धूपछांव सावन की हरियाली को खत्म करने लगती है । हांलांकि बारिश इस महीने में भी पड़ती है लेकिन सूर्य चूंकि तब तक सिंह राशि में आ जाता है और शेर की तरह ही दहाड़ता दिखता है । इस महीने की धूप बहुत तीक्ष्ण होती है । इस महीने में भी  उन्हीं सब बीमारियों का डर रहता है जिनका  सावन में रहता हैं , वायरल , खांसी जुकाम , डायरिया मलेरिया डेंगू आदि । आयुर्वेद में इस महीने में खान पान के नियम बहुत सख्त  रखे गए । इस महीने में दही और लस्सी का प्रयोग तो बिल्कुल मना किया गया है । दही और लस्सी ही क्यों खमीर से बनने वाले जितने भी खाद्य पदार्थ जैसे इडली , वड़ा , डोसा , ढ़ोकला आदि कुछ भी  नहीं खाना चाहिए ।
इस महीने की उग्र धूप से शरीर में पित्त का संचय होता है । इसी कारण आपने देखा होगा कि कईं लोगों को बरसात में बहुत फोड़े फुंसियां निकलती हैं  इसलिए उन सब वस्तुओं के खाने की मनाही है जिससे पित्त बढ़े । अरबी , भिंडी , कटहल जिमिकंद नहीं खाना चाहिए । परवल , करेला , मेथी  दाना , कच्ची हल्दी , चिरायता और गिलोए का सेवन सेहत के लिए बहुत अच्छा है । आयुर्वेद के अनुसार इस महीने में पित्त शांत करने के लिए ठँडे दूध के साथ हरड़ का मुरब्बा खाना चाहिए । आंवले के साथ कुज्जे वाली मिश्री सुबह शाम लेनी चाहिए ।
                                                              इसी महीने में आता है गणेश उत्सव और गणेश जी पर दूर्वा चढ़ाई जाती है । महाराष्ट्र में तो दूर्वा की सुंदर माला बना कर गणेश जी को पहनायी जाती है । नन्ही दूब धार्मिक रूप से वृद्धि और विस्तार का प्रतीक है तो आयुर्वेद के अनुसार इसमें बहुत से गुण है  दूर्वा पित्त को शांत करती है । कोमल दूर्वा का रस अगर खाली पेट लिया जाए तो शरीर की गरमी शांत  होती है । और पित्त भी नियंत्रण में रहता है । दूर्वा  एंटिबायटिक भी है ।
 
                                             चातुर्मास विशेषकर बरसात में सोने से तीन घंटे पहले भोजन कर लेना चाहिए . क्योंकि इन महीनों विशेष रूप से बरसात में जठराग्नि मंद पड़ जाती है और पाचन शक्ति बहुत अच्छी नहीं होती । शुद्ध सात्विक और कम मिर्च मसाले का भोजन करना चाहिए ।
                                     
                                      भाद्रपद महीने  का नाम दो नक्षत्रों उत्तराभाद्रपद और पूर्वाभाद्रपद के नाम से पड़ा है । इस महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा इन दोनों में से किसी एक नक्षत्र में होता है । वैदिक काल में इस महीने को नभस्य और षौष्ठपद कहा जाता था । उत्तराभाद्रपद और पूर्वा भाद्रपद दो दो सितारों से मिल  कर बने हैं यानि कुल मिला कर हुए चार सितारे । चारों सितारे मिल कर पलंग के पांयें की आकृति जैसे लगते  हैं । अकेला उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र का प्रतीक जुड़वां है । इसके स्वामी बृहस्पति और शनि हैं इसलिए इसमें सत गुणों  और तमस गुणों का टकराव रहता है ।
                                     भले ही भाद्रपद चातुर्मास का दूसरा महीना है जिसमें सभी  शुभ कार्य करने की शास्त्रों में मनाही है । क्योंकि इन महीनों में मन और तन दोनों ही कमज़ोर रहते हैं । नेगेटिव सोच हावी रहती है इसलिए अच्छे फैसले और शुभ कार्य नहीं किए जाते । लेकिन त्यौहारों और पर्वों की  इस  महीने में भरमार है । भगवान कृष्ण की जन्माष्टमी उनकी शक्ति और सखी राधा रानी की जन्माष्टमी ,भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म , प्रथम पूजे जाने वाले गणपति बप्पा के जन्म की चतुर्थी और फिर पूरे दस दिन का गणपति उत्सव , भगवान विष्णु का वामन अवतार , केरल का ओणम उत्सव ये भी  दस दिन तक चलता है । पूरा केरल फूलों की रंगोलियों से सज जाता है । अपने राजा बलि के धरती पर आगमन की खुशी में केरलवासी दस दिन का उत्सव मनाते हैं । भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर दैत्यराजा बलि से तीन पग धरती मांग ली थी और फिर तीन पग में पूरा ब्रह्मांड माप लिया और राजा बलि को पाताल में भेज दिया था । अपनी प्रजा को बलि बचन देकर गए थे कि इस महीने में दस दिन के लिए वो पृथ्वी पर हर साल आयेंगें । इसी महीने में जाहरवीर गुगापीर का पर्व भी आता है । और सुहागिनों का पर्व हरितालिका तीज भी  इसी  महीने में मनाया जाता है ।
 
                                               और भी बहुत से आंचलिक पर्व है भादों के महीने में । सारे उत्सव ,सारे पर्व मनाएं लेकिन साथ ही ऋतुचर्या के अनुसार चलें सेहत एकदम फिट रहेगी ।
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मंगलवार, अगस्त 23

अगर अन्ना की शादी हो गयी होती तो...सर्जना शर्मा



 अन्ना हज़ारे के आंदोलन की सफलता को लेकर जहां गंभीर राजनीतिक बहसें छिड़ी हुई हैं । बुद्धिजीवी अन्ना हज़ारे के आंदोलन को सही और ग़लत ठहराने में लगे हैं वहीं चुटकलों का बाज़ार भी गर्म है एक चुटकला अन्ना के आंदोलन की सफलता के कारण पर ----

 ---  अगर अन्ना की शादी हो गयी होती तो ये आंदोलन कभी सफल ना होता । क्योंकि पत्नी सवाल करती ----

---   कहां जा रहे हो ?

---  अकेले तुम्हे ही क्या पड़ी है अनशन करने की ?

--- इस केजरीवाल का साथ छोड़ दो ?

---- वो बॉयकट बालों वाली महिला कौन है बार बार तुम्हारी बगल में आकर क्यों बैठती रहती है ?

-- सारा दिन रात रामलीला  मैदान में ही पड़े मत रहना । समय से घर आ जाना ।

--वहां पहुंचते ही फोन करना उधर से लौटते में एक किलो भिंडी ले आना और हां घर में पैसे भी खत्म हैं बैंक से पैसे भी  निकलवा लाना  ।

शनिवार, अगस्त 20

अपना घर संवारे सरकार, सब संवर जाएगा





सर्जना शर्मा

  आप में से कइयों ने सारांश फिल्म देखी होगी जिसमें एक बूढ़ा पिता विदेश से आयी अपने जवान बेटे की लाश लेने के लिए एयरपोर्ट पर कस्टम विभाग के चक्कर काटता है उससे रिश्वत मांगी जाती है और एक दुखी  पिता के दिल का गुबार आक्रोश में बदल जाता है और वो बड़े अधिकारी के कमरे में जाता है और पाता है कि वहां कुर्सी पर बैठा अफसर तो उसका अपना ही पुराना स्टूडेंट है । अपने गुरू का ऋण चुकाने का समय आया तो स्टूडेंट पीछे नहीं रहा और वह बूढ़ा बिना रिश्वत दिए अपने बेटे की लाश घर ले जाता है । लेकिन ज़रा सोचिए ऐसे कितने लोग होंगें जिन्हें अपने पुराने स्टूडेंट मिल जाते हैं । आम आदमी को तो हर रोज रिश्वत की चक्की में पिसना पड़ता है । आप सबके पास सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के ना जाने कितने अनुभव होंगें और कितने आपने अपने दोस्तों , रिश्तेदारों से सुने होंगें ।
 पिछले साल अक्तूबर में हमारी एक आंटी का निधन हुआ उनके पति तो पहले ही परलोक सिधार चुके थे और दोनों बच्चे विदेश में बसे हैं । आंटी जीवन से भरपूर थीं अपनी शर्तों पर अपना जीवन जीती थी मस्त रहती और एक्टिव सोशल लाइफ बिताती थीं हमसे आंटी का विशेष स्नेह था । आंटी नोएड़ा के आर्मी सेक्टर में रहती थीं । उनके निधन के बाद दोनों बच्चों को विदेश जाना था . डेथ सर्टिफिकेट लेना ज़रूरी था लेकिन जिन जनाब को देना था उन्होने किसी के माध्यम से मोटी रिश्वत मांगी  क्योंकि वो भी जानता था कि इन्हें विदेश लौटना ही है और उससे पहले सर्टिफिकेट चाहिए । उन्होनें हमसे भी बात की । 
हमने एक स्थानीय पत्रकार के माध्यम से उन सरकारी कर्मचारी से बात की उन्होनें जो जवाब दिया आप भी सुनिए --- "तुम्हें क्या पड़ी है? काम अपने तरीके से होता है तुम्हें ज्यादा जल्दी है तो जा कर डीएम से मिल लो "? इशारा साफ था कि मेरे रास्ते में मत आओ । बरसों से विदेश में बसे दोनों भाई बहन मौत पर भी रिश्वत मांगने से परेशाऩ हुए और कहने लगे अच्छा है हम इंडियां में नहीं रहते इस सबसे बचे हुए हैं ।
 
                                                                   एक दिन अपने नोएडा फिल्म सिटी ऑफिस से निकल कर मैं तिपहिया आटो  लेना चाहती थी . लेकिन यहां के ऑटो स्टेंड से ऑटो लेना कोई हंसी खेल नहीं है। दाम तो ऐसे बताते हैं कि इंसान इससे अच्छा तो टैक्सी ही ले ले । उन्हें इगनोर करते हुए मैं आगे बढ़ रही थी कि कुछ आटोटालक मेरे पीछे पीछे आ गए मैडम कहां जाना है । मैने कहा मेन सड़क से ले लूंगी तुम्हारे रेट ज्यादा होते हैं । लेकिन उनमें से एक दो बाजिब दाम पर चलने को स्वयं राजी हो गए ।
 मैं एक आटो में बैठचालक ने स्वयं  बात शुरू की ----"मैडम माफ करना क्या करें ज्यादा दाम लेना हमारी मजबूरी है । घर परिवार चलाना बच्चे पालना और फिर हर महीने पुलिस को 1500 रूपए देना । आप  बताएं हम कहां से लायेंगें सवारी से ही निकालेंगें ना लेकिन मैडम आप मेरा मोबाइल नंबर ले लो आप को जब जाना हो एक आध घंटा पहले मुझे फोन कर देना मैं आपके ऑफिस के सामने आ जाऊंगा "।
 ये किस्सा 2009 का है ।
                                  मैं अक्सर मौर्निंग शिफ्ट में ऑफिस आती हूं . सुबह सुबह साढ़े पांच छह बजे यूपी और दिल्ली पुलिस की बहुत सी करतूतें देखते ङुए आती हूं । कहीं ट्रक रोक कर सीधे सीधे नोट ले रहे हैं तो कहीं डबलरोटी , बिस्कुट और रस बेचने की साइकिल या सेकूटर रोक कर खड़े रहते हैं और वो बेचारा उन्हें मुफ्त की डबलरोटी , बिस्कुट देकर ही जान छुड़ाता है । इस बार दीवाली पर तो हद ही हो गयी । एक आदमी फूलमालाएं लेकर जा रहा था । दीवाली से दो तीन दिन पहले फूल मालाएं बहुत महंगी हो जाती हैं । उसे भी रोक कर पुलिस वाले उससे मुफ्त की मालांए दे रहे थे ।
                                             
                     नीचे के स्तर पर भ्रष्टाचार के ये दो तीन मेरे अपने निजी अनुभव हैं , अनुभव तो और भी कईं हैं लेकिन अनंत गाथा लिखना बेकार है । सरकारी कर्मचारी जिन्हें सरकार उनके काम के बदले वेतन के अलावा भी बहुत कुछ देती है वो एक दिहाड़ीदार कामगार से भी पैसा एंठने में शर्म नहीं करते ।
                 अन्ना हज़ारे को जो आज इतना समर्थन मिल रहा है वो हम और आप जैसे भष्टाचार के सताए लोगों का ही मिल रहा है । सरकार से मिलने वाले वेतन को तो भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी केवल सूखी रोटी मानते हैं उस पर लगाने के लिए मख्खन तो रिश्वत से आता है । औऱ आजकल तो मोटी मलाई वाले विभागों में नौकरी करना बड़ा रूतबा है । रिश्ते  करते समय लोग बहुत शान से कहते हैं -- अजी सैलरी पर ना जाए उपर की कमाई बहुत है आपकी बेटी राज करेगी । हम मान चुके हैं और स्ववीकार कर चुके हैं कि रिश्वत लेना देना कोई बुराई नहीं है । हम नेताओं को भले ही दिन रात कोस लें लेकिन नौकरशाही को खंगालने लगेगें तो भ्रष्टाचार के छोटे बड़े इतने किस्से सामने आयेंगें कि सात समुद्र की स्याही बनाने पर भी लिखे नहीं जा सकेंगें । कईं बड़ी मछलियां तो फंसी भी हैं ।
सोनिया गांधी की रैली हो या लाल कृष्ण आडवाणी की मुलायम सिंह की हो या मायावती की ।
 
                                         लोगों की तो छोड़िए सरकार को ही अपने संस्थानों पर भरोसा नहीं है । बड़े और छोटे नेताओं और सरकारी अफसरों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते, मंहगें निजी स्कूलों में या विदेशों में पढ़ते हैं । नेता अपना इलाज सरकारी अस्पतालों में नहीं करवाते । या तो निजी पांचसितारा अस्पतालों से करवाते हैं या फिर विदेशों में जाते हैं । सबसे ताजा उदाहऱण तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का है । यानि ये लोग मानते हैं कि सरकारी संस्थान भरोसे लायक नहीं है । सरकारी अस्पताल बदहाल है । इलाज के लिए गरीबों के धक्के खाने पड़ते हैं ड़ॉ हैं तो दवाई नहीं , दवाईं हैं तो बेड नहीं मिल पाता ।
 
   विदेशों में इसके विपरीत है । मेरी एक जूनियर आजकल कनाडा में है । उसके पति आईबीएम के प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं । वो भारत से गयी तो प्रेगनेंट थी । वो महेशा टच में रहती है फेस बुक से फोन से । सने बताया कि उसका पूरा लाज और डिलीवरी सरकारी अस्पताल में ही हुई । वो सरकारी बस से ही हर रोज़ अस्पताल जाती । वहां के लोग उसे बस में चढ़ते देखते तो आगे बढ़ कर उसका हाथ थाम लेते प्यारी सी मुस्कान देते बैठने की जगह देते और पूछते आर यू कमफर्टेबल ।
 
और उसने बताया कि सरकारी अस्पताल भारत के मंहगें पांच सितारा अस्पतालों जैसे साफ सुथरे , सुविधाओं से युक्त । सारी दवाएं अस्पताल स्वंय देता है । औऱ ड़ॉक्टरों का रवैया बहुत ही अच्छा । उसने बताया कि ड़ा. उसका चेकअप अच्छे से करते । एक डॉ. ने तो उसे बच्चों की प्यारी प्यारी पेटिंग दी और  कहा अपने बेडरूम में टांगना, तुम्हारा बच्चा भी प्यारा होगा ।
                                        ऐसे व्यवहार की अपेक्षा यहां ना तो आम जनता से की जाती है और नाही सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों से । मेरी बहन प्रेगनेंट थी हर रोज एक ही चार्टेड बस से दफ्तर जाती। बस क्योंकि जनकपुरी से बन कर चलती थी धौला कुंआ तक आते आते भर जाती लेकिन कभी किसी ने सीट देना तो दूर अपने साथ एडजस्ट करने की ऑफर भी नहीं दी । औऱ सरकारी अस्पतालों में क्या हाल रहता है वो किसी से छुपा नहीं है । आज निजी संस्थानों में स्कूल और अस्पताल फल फूल रहे हैं । अपनी मनमानी कर रहे हैं और आम आदमी मजबूर है करे तो क्या करे ।
 
                                अन्ना हजारे अगर भ्रष्टाचार मिटाने की बात करते हैं तो क्या गलत है। हां तरीका गलत हो सकता है लेकिन विषय तो हर आदमी से जुड़ा है । हमारे नेताओं और नौकरशाही ने अगर सरकारी संस्थानों को श्रेष्ठ और भ्रष्टाचारमुक्त नहीं बनाया तो फिर निजी क्षेत्र की ही मनमानी चलेगी । यही नेता अपने निजी शिक्षण संस्थान और अस्पताल चला रहे हैं और खूब कमा रहे हैं ।
 सरकार अपना घर संवार लेगी तो बहुत कुछ संवर जाएगा । आम जनता को राहत मिलेगी ।



मंगलवार, अगस्त 2

वो तीज, वो सावन के झूले, अब कहाँ...सर्जना शर्मा


आज  सावन की हरियाली तीज है, लेकिन तीज की उमंग  और उल्लास कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। दिखाई देता है तो बस पांच सितारा होटलों में लगने वाले तीज मेलों में या फिर बड़े संपन्न औद्योगिक घरानों की महिलाएं चैरिटी के लिए तीज मेले लगाती हैं। बरसों से लग रहे इन मेलों में कोई नयापन नहीं है। ये वैसे ही हैं जैसे दिल्ली में और भी कईं प्रदर्शिनयां लगती रहतीं हैं ।
वैसे देखा जाए तो बदलते वक्त की शायद यहीं मांग है। अब किसके पास समय है कि वो सावन के झूले झूले या फिर अपनी सखियों सहेलियों के साथ तीज का त्यौहार मनाएं।  कुछ हाऊंसिंग सोसायटियां भी अपने परिसरों में तीज मनाती हैं ।

 
हरियाली तीज आते आते सावन आधे से ज्यादा बीत जाता है। ना तो अभी तक सावन की  घटाएं वैसे घिर कर आई हैं जैसे पहले घिरती थीं और ना ही सावन झूम कर बरसा है कम से कम दिल्ली में तो नहीं बरसा। दिल्ली में कहीं भी किसी पेड़ पर सावन के झूले भी पड़े नहीं दिखे। शायद इंसान के साथ साथ प्रकृति भी बदल रही है। सावन ही नहीं बरसता तो झूले कैसे ? 
            
 हमारे बचपन का सावन बरसता भी था और झूलों का आनंद भी अपार था। जहां हम रहते थे वो शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसी एक छोटी सी सुंदर जगह थी। प्रकृति की सुंदरता चारों और बिखरी हुई थी। घर के आस पास मज़बूत पेड़ थे । लेकिन सावन के झूले के लिए ज्यादातर नीम के पेड़ और शीशम के पेड़ पर सबकी नज़र रहती थी । सावन तो बाद में आता पहले चिंता रहती थी "टाणा मल्ल्कने " यानि पेड़ की मज़बूत और ऊंची शाखा पर कब्ज़ा करने की । आषाढ़ के महीने  में ही टाणे पर एक बोरी बांध कर हम लोग सुनिश्चित कर लेते थे कि बस अब तो इस पेड़ पर हमारा ही झूला डलेगा । आस पडोस में कम से कम हमारा पचास साठ बच्चों का समूह था । मज़बूत तने पर कब्जा करने के लिए सबसे ज्यादा मांग रहती मेरी बहन की, वो बहुत फुर्तीली थी बड़े से बड़े पेड़ पर बंदर की तरह चढ़ जाती और फिर उतर भी आती । वही सबकी बोरियां बांध कर आती और फिर झूले की रस्सी डालने के लिए भी मेरी बहन की चिरौरी करने बच्चे हमारे घर पहुंच जाते । झूले की रस्सी आम रस्सी जैसी नहीं होती थी रंगीन सतरंगी रस्सी और झूले में डलने वाली पटरी भी बहुत सुंदर नक्काशी दार होती थी । आषाढ़ की पूर्णिमा की शाम को झूले भी डाल दिए जाते । सब झूले मेरी बहन ही डालती । रस्सी लेकर पेड़ से चढ़ती और फिर झूला डाल कर पेड़ से नहीं रस्सी पकड़ कर ही उतर आती  और एक नियम था कि जो झूला डालेगा पहले नौ झूले उसे ही दिए जायेंगें । और फिर झूले में सुंदर सी पटरी लगा कर मेरी बहन को बैठाया जाता और नौ झूले दिये जाते । और फिर तो झूलों की बहार आ जाती ।और सबसे ज्यादा भीड़ रहती उस झूले पर जिस की पींग सबसे ऊंचा जाती । झूला बहुत ऊंचा जाए उसके लिए एक बहुत नायाब तरीका हम सबने खोज निकाला था । हम एक पतली मुलायम रस्सी लाते उसे झूले पर थोड़ा ऊंचा करके ऐसे बांधते की रस्सी दोनों तरफ आधी आधी रहे । इसे हम लश्कर कहते  थे ।रस्सी का एक हिस्सा एक बच्चा पकड़ता और दूसरी तरफ का दूसरा । और फिऱ जोर लगा कर झूला झूलाते धीरे धीरे झूला बहुत ऊंचा बढ़ जाता । इसमें बदमाशी की जितनी संभावनाएं होती वो बच्चे इस्तेमाल करते मसलन जब झूला बहुत उंचाई पर होता तो लश्कर को झटका दे देते जिससे झूले में झटका लगता और गिरने की संभावना बनी रहती । वैसे तो ये सिर्फ डरा कर मज़े  लेने के लिए किया जाता था लेकिन एक बार एक लड़की बहुत उंचाई से गिर गयी और उसकी नाक टूट गयी । चोट लग जाए ऐसा तो कोई नहीं चाहता था लेकिन उस दिन सबको दुख बहुत हुआ और जो डांट पड़ी उसका अंदाज़ तो आप लगा ही सकते हैं । सावन के दिनों में झूलों में हमारी जान बसती थी ।

स्कूल बिल्कुल पास था दूसरी घंटी बजने तक झूले झूलते, आधी छुट्टी में खाने के बजाए झूले में ज्यादा दिलचस्पी रहती. वो सब बच्चे भी आ जाते जो आस पास के गांवों और चंड़ी मंदिर कैंच से आया करते थे । समय कम और बच्चे ज्यादा इसलिए झूलों की, राशनिंग होती, तय कर लिया जाता एक बच्चा कितने झूले लेगा । लेकिन उस इंतज़ार का और फिर झूले के आनंद का जो मज़ा था उसे आज भी याद कर मन नाचने लगता है ।
                
दोहरा झूला डाल कर उसमें छोटी सी मंजी यानि खटोला भी डालते । उस पर चादर इस तरह से तानते कि वो घऱ जैसा बन जाता उसमें बैठ कर खाना खाते थे । सावन में चाहे हल्की फुहारे पड़ती या फिर तेज बारिश हम लोग झूले को मोह नहीं छोड़  पाते थे । सावन शुरू होने  से पहले ही सब नवविवाहित लड़कियां ससुराल से अपने मायके लौट आतीं । और नवविवाहित बहुएं अपने मायके चली जातीं ।

कहा जाता पहला सावन ससुराल में नहीं बीतना  चाहिए । लेकिन अब जब अपनी संस्कृति के बारे में जानने समझ ने की कोशिस कर रही हूं तो पता चला  है कि सावन में ससुराल में ना रहने की कोई धार्मिक  वजह नहीं थी बल्कि ये पति पत्नी की सेहत से जुड़ा गंभीर मसला था । हमारी परंपरा में सावन के महीने में पुरूषों को ब्रह्मचर्य के पालन की अनिवार्यता थी, क्योंकि सावन के महीने में पुरूषों को अपने वीर्य का सरंक्षण करना चाहिए आयुर्वेद तो यही कहता है । इस महीने में गर्भ ना ठहरे, इसका पूरा प्रयास रहता था, क्योंकि इस महीने में ठहरे गर्भ से पैदा हुए बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से बहुत बलवान नहीं होते । इसलिए पत्नी को पति से दूर रखने का अच्छा तरीका था कि मायके भेज दो लेकिन आज शायद ये संभव नहीं हो पायेगा .। पति पत्नी दोनों कामकाजी और उपर से न्यूक्लीयर फैमिली ।

हमारे यहां बड़ा बाज़ार नहीं था लेकिन बहुत विश्वस्त फेरी वाले चक्कर काटने शुरू कर देते थे । चूड़ी , श्रृंगार का सामान , कपड़े साड़ियां , जरी गोटा, यहां तक कि सोने -चांदी के गहने वाला भी । महिलाओं के साथ इनकी गजब  की आत्मीयता होती । सामान किश्तों में खरीदा जाता था । उन्हें  सबकी आवश्यकताएं पता होती, किसको बहू का सिधारा भेजना है, किसको बेटी की ससुराल  से  सिंधारा लाने वालों को तोहफे देने हैं । यानि ना खाता ना बही बस जुबान का भरोसा ।  और आज की भाषा में कहें तो मोबाइल शॉप । इन के साथ रिश्ता केवल खरीद फ़रोख्त तक ही सीमित नहीं था, सुख दुख के गहरे नाते भी थे । हम तो बच्चे थे लेकिन देखते थे कि सब महिलाओं से दुकानदार दुनियादारी की बाते करते  खाते पीते    । कपड़े लाने वाले का नाम सरना था, सुनार भोला था । जब .ये लोग आते तो महिलाओं के साथ साथ हम भी कौतुहल वश इन्हें घेर कर खड़े हो जाते   । लड़कियों के नाक कान भी भोला ही बिंधता था । लो जी ज्यादातर  शॉपिंग   तो घर बैठे ही हो जाया करती थी । 
सावन के महीने में मिठाइयां विशेष,कर घेवर खूब खाने को । नवविवाहिताओं के ससुराल से सिंधारा आता तो शान से सबको दिखाया जाता आस पड़ोस के गली मौहल्ले के सब लोग सिंधारा देखने आते, और साथ ही वो सामान भी सजा दिया जाता था, जो ससुराल वालों के लड़की वाले देते क्योंकि लड़की की ससुराल से जितना आया उसका दोगुना तो वापस करना ही होता था । और फिर जो मिठाई और फल सिंधारे में आए होते उन्हें पूरे पड़ोस में बांटा जाता । इस तरह की संस्कृति दिल्ली के पॉश इलाकों में देखने को नहीं मिलती । किसी को किसी से बात करने की फुरसत ही नहीं और अगर हो भी तो इगो आड़े आ जाती है ।

 तीज से पहले नए कपड़े सिल जाते क्योंकि ये लडकियों का त्यौहार है । चुन्नियों में गोटे लगाए जाते । और फिर तीज की एक रात पहले मेंहदी लगायी जाती । मेरी बीजी हम दोनों बहनों को बड़े चाव से मेंहदी लगातीं । उन्हें आजकल जैसी मेंहदीं नहीं लगानी आती थी जिसे हम उस समय राजस्थानी मेंहदी कहते थे । वो मुठ्टी की मेंहदी लगा कर हमारे दोनों हाथ कस कर एक कपड़े से बांध देतीं और फिर सुबह ही हाथ खोले जाते । हम सब लड़कियां सबसे पहले उठ कर एक दूसरे से ये पूछने भागते थे  कि किसकी मेंहदी कैसी रची, . किसका रंग कैसा आया । हम लोगों का विश्वास था कि जिसकी मेंहदी सबसे गाढ़ी रचेगी उसकी सास उसे सबसे ज्यादा प्यार करेगी । बचपन का भोलापन तो देखिए जिस लड़की की मेंहदीं का रंग हल्का होता था, वो सचमुच निराश हो जाती ये सोच कर कि उसकी सास तो उसे प्यार ही नहीं करेगी ।
                                         
तीज वाले दिन स्कूल जाने का तो सवाल ही नहीं , स्कूल से छुट्टी, सज धज कर हम पहुंच जाते अपने झूलों पर और हमारी बीजी उस दिन दस ग्यारह बजे तक किचन में व्यस्त रहती पक्का खाना बनता । खीर , पूड़ी , तीन चार तरह की सब्जियां अपने लिए ही नहीं आस पड़ोस के लिए भी । सबके घर भी थाल सजा कर मेरी बीजी भेजती  ।
                                            
घर के काम काज से निपट कर फिर महिलाएं आ जातीं झूला झूलने सब सजी धजी और क्या सुंदर गीत गातीं । उनमें से एक मुझे याद है -- कच्चे नीम के निंबोली लागी सावनियां कब आवेंगें , दादा दूर मत ब्याहाइयो दादी नहीं बुलाने की , ये उस समय का बना गीत होगा  जब यातायात के साधन बहुत अच्छे नहीं थे, ये कुंवारी लड़की की चिंता है औऱ दादा से अनुरोध है कि मेरी शादी बहुत दूर मत कर देना । लेकिन दादा अपनी पोती को विश्वास दिलाता है, रेल की सवारी झट बुला लूंगा ।
 
नाच गाना झूला मस्ती खाना पीना और तीज बीत जाती फिर इंतजार शुरू हो जाता अगले साल की तीज का । मेरी बीजी बताती हैं कि उनकी तीज हमसे अलग होती थी । वो और उनकी सहेलियां उस दिन गौरां की शादी करती, बारात निकालती, भगवान को भी झूले झुलातीं और वो बताती है कि उनके गांव में मनियार और बजाजी महीनों पहले डेरा डाल लेते थे । मनियार यानि चूड़ी वाला और बजाजी यानि कपड़े वाला । हमारी मां के समय से हमारे वक्त की तीज बदली औऱ अब तो तीज का रूप रंग बड़े शहरों में बदलता जा रहा है । छोटे  परंपरागत शहरों में तो अब भी तीज की पुरानी रंगत दिखती है लेकिन दिल्ली में तो तीज मेलों तक ही सिमटी दिख रही है ।