शुक्रवार, सितंबर 7

सावधान आपका "परिवार " है भारत विरोधियों के निशाने पर
                सर्जना शर्मा , वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय समाज की सबसे मज़बूत ईकाई और आधार  "परिवार" भारत विरोधियों के निशाने पर है ।
पूरे विश्व को अपना परिवार मानने वाली संस्कृति का अपना परिवार  संकट के दौर में है ।
अनेक तरीकों से परिवार व्यवस्था को कमज़ोर करने की कोशिशें जारी हैं ।
परिवार,आर्थिक,भावनात्मात्क,सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते हैं ।
कोई कितने भी कठिन दौर से गुज़र रहा हो उसका परिवार उसका संबल बनता है ।
दुख में सुख में परिवार साथ खड़ा रहता है ।
संयुक्त परिवार प्रथा तो वैसे ही अब आधुनिक जीवन शैली में कम हो गयी है एकल परिवारों का चलन बढ़ा है ।
लेकिन अब ये एकल परिवार भी बिखर रहे हैं ।
रिश्तों का ताना बना टूट रहा है ।
हमें शायद ये आभास भी नहीं हो पाता कि किस तरह से अंतराष्ट्रीय साजिश
हमारे यहां कभी कानून के रूप में तो कभी किस ऑन द रोड़ ,
कभी देह की आज़ादी और कभी मेरिटल रेप और कभी व्यक्तिगत आज़ादी
के रूप में परिवार के ताने बाने को तोड़ती जा रही है ।
                 
बॉलीबुड फिल्म इंडस्ट्री छोटा पर्दा, जो कभी सामाजिक सरोकार , ज्वलंत मुद्दों , पारिवारिक एकता
सामाजिक और राष्ट्रीय एकता पर फिल्में और धारावाहिक बनाते थे ।
अब उसमें बड़े परिवर्तन आ गए हैं ।
हम लोग , बुनियाद , चाणक्य ,भारत एक खोज, महाभारत ,रामायण जैसे धारावाहिकों ने
छोटे पर्दे पर ना केवल इतिहास रचा बल्कि समाज को दशा और दिशा भी दी ।
लेकिन अब यहां भी धारावाहिक एक्सट्रा मेरिटल एफेयर्स से भरे पड़े हैं ।
नायिकाओं की तीन चार शादियां और प्रेम प्रसंग आम बात है ।
जनमानस को ये धारावाहिक प्रभावित ज़रूर करते हैं ।
 यदि आपने कभी गौर किया हो तो आप पायेंगें भारतीय सिनेमा से भजन , लोरी ,
भाई बहन के स्नेह,मां की ममता के गीत 21 वीं सदी आते आते लगभग गायब हो गए हैं ।
हम साथ साथ है , हम आपके हैं कौन  जैसी फिल्में बननी अब बंद हो गयी हैं ।
फिल्मों को समाज का आईना कहा जाता है ।
लेकिन जिस तरह की फिल्में अब आ रही है क्या वो सचमुच हमारे समाज का आईना है ?
हाल ही में आई फिल्म " वीरे दी वेडिंग "  ने विशेष रूप से ये सोचने को मजबूर कर दिया है ।
नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण का ये रूप अभी बड़े और व्यापक पैमाने पर हमारे
समाज में इतना प्रचलित तो नहीं हुआ है ।
हमारे समाज में परिवारों के केंद्र में है मां यानि गृहस्वामिनी ।
हम मध्यम वर्गीय परिवारों में मां ही परिवार की धुरी और सबसे मज़बूत आधार स्तंभ है ।
बच्चों को संस्कार देने का दायित्व भी उसी के कंधों पर है ।
परिवार के हर व्यक्ति की झ़रूरतों का ध्यान रखना , परिवार के प्रति समर्पित रहना ज्यादातर
परिवारों में यही सिस्टम बरकरार है ।
पढ़ी लिखी कामकाजी महिलाओं की पहली चिंता भी उनका परिवार ही रहता है ।
मर्यादा , संस्कारों दायित्वों के बंधन में बंधी भारतीय महिलाएं परिवारों में अपनी पदवी को
लेकर गर्व और सुख की अनुभव करती हैं ।
अपने आसपास मैनें ऐसा ही देखा है ।
ऐसा नहीं है कि परिवार व्यस्था में सब कुछ बहुत ही अच्छा और आदर्श है बहुत सारे अपवाद है
कुछ खामियां भी है ।
इन खामियों को सुधारने की ज़रूरत है ना कि परिवार व्यवस्था और अपने संस्कारों को तिलांजलि
देने की ।
            
वीरे दी वेडिंग में परिवार व्यवस्था और माता पिता का जम कर मज़ाक उड़ाया गया है ।
मां बाप को गंवार और अपने ही बच्चों के लिए बेहद गंवार और फालूत दिखाया गया है ।
चारों लड़कियां की भाषा बेहद सड़क छाप है ।
अब कोई ये दलील भी दे सकता है कि ये फिल्म है कोरी कल्पना है सच्चाई से कोई लेना देना नहीं है ।
लेकिन क्या ये तर्क इस फिल्म के दूरगामी परिमाम से अपना पल्ला झाड़ सकता है ।
जिस समाज में हीरो के कपड़े ,चश्मा हीरोइन की ड्रेस, हेयरस्टाइल  एक पूरी पीढ़ी पर असर
डालती है ,
ऐसे में निर्माता निर्देशक क्या अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा सकते हैं ।
      समाज पर इसका प्रभाव क्या होगा ये सोचने की बात है ।
युवा लड़कियों के सामने समस्या ये होगी कि वो अपने परिवार की पंरपराओं के दायरे में रहें
या फिर इन बोल्ड बिंदास लड़कियों की जीवन शैली अपना लें ।
दरअसल दुविधा में है आज की पीढ़ी . वो अपने संस्कारों रीति रिवाज़ों को पसंद नहीं करते ऐसा
भी नहीं है ।
लेकिन नारी  की व्यक्तिगत स्वतंत्रता ,देह की आज़ादी, रात को सड़कों पर घूमने की आज़ादी ,
पुरूषों की तरह खुले आम शराब सिगरेट पीने की आज़ादी , सरे आम किस करने की आज़ादी
जैसे मुद्दे भी उन्हें बहुत प्रभावित करते हैं ।
लेकिन भोली भाली लड़कियां ये नहीं जानती कि ये नारे देने वाली और आंदोलन चलाने वाली
महिलाएं अपने घर में अपने पति की दासी बन कर रहती हैं ।
हर जुल्म सहन करती हैं लेकिन घर से बाहर निकल नारी मुक्ति की झंडाबरदार बन जाती हैं ।
इनमें से कईं नारावादियों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानती हूं ।
उनसे मैनें कई बार सवाल किया कि तुम पढ़ी लिखी ,
अच्छी नौकरी और समाज में अच्छे स्थान के बावजूद ये सब क्यों बरदाशत करती हो ?   
उनका उत्तर होता है -- "अरे अब क्या करें पति से अलग हो कर रहना भी तो बहुत मुश्किल है ।
सोशल स्टेट्स ही बदल जाएगा अलग होते ही "।
लेकिन कितनी लड़कियों को उनके जीवन की सच्चाई पता है वो तो उनके जोशीले नारी मुक्ति
भाषणों को ही सच्चाई मानती हैं ।
ये भोली भाली युवतियां पुरूषों का विरोध करते करते ये भी भूल जाती हैं कि उनके पिता , भाई ,
बेटे भी पुरूष हैं ।
इसका एक गंभीर और चिंतित कर देने वाला उदाहरण मेरे सामने आया एक कॉलेज के समारोह
में जब मैं मुख्य अतिथी के रूप में गयी ।
कॉलेज के प्रांगण में बनी रंगोली ने ये अहसास कराया कि इस नारी मुक्ति आंदोलन का रूप पूरे
समाज के पुरूषों को अवांछनीय घोषित करता है ।
पता चला पितृसत्ता के प्रति नफरत से भरी ये रंगोली मात्र 18 वर्ष की एक छात्रा ने बनायी थी ।
इस तरह की मानसिकता के साथ क्या कोई भी लड़की एक सुखी परिवार का हिस्सा हो सकती है ?
       समाज कितना भी बदल गया हो लेकिन आज भी एक आम व्यक्ति चाहता है कि उसका परिवार
सुखी हो उसके बच्चों की शादी हो और वो सुखी वैवाहिक जीवन बिताएं ।
लेकिन जिस तरहसे कोर्ट के फैसले आ रहे हैं कानून बन रहे हैं उससे परिवार सिस्टम को खथरे
और बढ़ रहे हैं ।
अदालत ने बिना शादी किए लिव इन रिलेशनंस को वैध घोषिच कर दिया है ।
समाज बिरादरी का डर महानगरों में वैसे भी नहीं होता है कानून का डर लोगों को रहता था वो भी
अदालतों ने खत्म कर दिया है ।
दिल्ली पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि महिलाओं के प्रति अपराध के जितने मामले दर्ज
होते हैं उनमें से पचास फीसदी लिव इन रिलेशन वालों के होते हैं ।
समाज के बंधन तोड़ कर अपनी मन मर्जी से जीवन बिताने का कदम उठाने वालों का अंत फिल्मों
या धारावाहिकों की तरह सुखद और सरल नहीं होता ।
      
केवल पति पत्नी के ही रिश्तें बिगड़ रहेहैं ऐसा नहीं बल्कि अनेक कानूनों के कारण परिवारों में दरारें
आ रही हैं ।
महिलाओं का सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून का सदुपयोग कम और दुरूपयोग ज्यादा हो रहा है ।
दहेज कानून और उत्पीड़न कानून का जितना दुरूपयोग हुआ शायद ही किसी कानून का हुआ हो ।
अब जब पानी सिर से उपर चला गया तो केंद्रीय महिला और बाल कल्याण ने इस कानून में
ससुराल पक्ष को राहत दी है ।
                                   
भारतीय समाज की मज़बूत बुनियाद है परिवार यदि बुनियाद हिला दी जाए तो पूरा समाज
तितर बितर हो जाएगा ।
भारतीय परिवार व्यवस्था पूरी दुनिया के लिए आदर्श उदाहरण है ।
पश्चिमी देशों और भारतीय समाज में नारी का स्थान एक जैसा नहीं है ।
वहां जो नारीवाद आया उसके भी अपने कारण थे।
सत्तर के दशक में जो नारी वादी आंदोलन चला वो भारत में तो क्या सफल होता पश्चिमी देशों में
ही सफल नहीं हो पाया ।
हमारे समाज में वैदिक काल महिलाओं का एक सम्मानीय स्थान रहा है ।
समाज के ताने बाने में संस्कारों की दमदार घुट्टी है ।
ग्लोबलाइजेशन ने समाज को काफी हद तक प्रभावित किया है मान्यताएं बदली हैं सोच बदली है ।
जहां भारत का मज़बूत परिवार सिस्टम भारत  को कमज़ोर करने वाली ताकतों के निशाने पर है
वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ ने 15 मई को अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस घोषित कर रखा है ।                         
व्यक्ति की आज़ादी के नाम पर परिवार के ताने बाने को तोड़ने का जो कुप्रयास विभिन्न
माध्यमों से रचा जा रहा है उससे हमें सावधान रहने की ज़रूरत है ।
समझना होगा कि आधुनिकता का अर्थ अश्लीलता कतई नहीं है ।
नारी सशक्तिकरण का अर्थ स्वछंदता नहीं है ।
व्यक्तिगत आज़ादी का अर्थ अपने परिवार से रिश्ता तोड़ना नहीं है ।
अपने संस्कारों रीति रिवाज़ों और परंपराओं की धरती पर पैर जमा कर आधुनिक युग
के साथ कदम से कदम मिलाना ही हमारे परिवारों को सुरक्षित और एकजुट रखेगा ।

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