आम नहीं केवल आम , ये है रिश्तों और भावनाओं की मीठी मीठी याद ---
( जिन्ने अम्बियां ते अम्ब नीं खाए , ओ जम्मया नहीं )
( जिन्ने अम्बियां ते अम्ब नीं खाए , ओ जम्मया नहीं )
आम का मौसम है कच्ची अंबिया लग चुकी हैं बाज़ार में रसायनों से पके आम आ चुके हैं लेकिन डाल पर पका आम अभी नहीं आया है । कल फेस बुक पर अपने बहुत पुराने सहयोगी ATUL MISHRA का एक स्टेटस देखा जिसमें उन्होनें लिखा ------आम की गुठली खाते हुए इंसान आदिवासी जैसा लगता है । --- उनकी इस पोस्ट ने यादों का एक पिटारा खोल दिया । बचपन से लेकर अब तक की आम से जुड़ी यादें कल से दिमाग में एक एक करके आ रही हैं . वैसे तो आम के हर मौसम में आम से जुड़ी यादें कईं बार आकर दिल का दरवाज़ा खटखटाती हैं । और मुझे पूरा यकीन हैं महिलाओं की तो विशेष रूप से आम से बचपन की बहुत सी यादें जुड़ी होंगी .
जहां हमारा बचपन बीता वहां चारों तरफ आम ही आम के पेड़ थे और भी कई तरह के फलदार पेड़ थे । हमारे स्कूल में कलमी आम के पेड़ थे और कलमी आम का बाग भी था । स्कूल के पास ही सेठी की कोठी थी जहां कईं तरह के आम के पेड़ थे । स्कूल और घर के पीछे शकुंतला का बाग था उसमें भी बहुत तरह के आम के पेड़ थे. कहने का मतलब है आम की बहार थी । आम के मौसम में हमारे बस्तों में नमक और लाल मिर्च की पुड़िया रहती थी और एक ब्लेड़ भी । अब आप पूछेंगें ब्लेड़ किसलिए - चुराई हुई कच्ची अंबियों को आधी छुट्टी में हम सब लड़कियां मिल कर काटते छोटे छोटे चौकोर टुकड़े बनाते और उसमें नमक लाल मिर्च का पाऊडर मिला कर खाते थे । आहा --- क्या स्वाद था अब भी मुंह में पानी आ रहा है । मैं दावे को साथ कह सकती हूं आपमें से बहुतों ने बचपन में ऐसे ही आम चुरा कर खाएं होगें उनमें नमक मिर्च का पाऊडर भी मिलाया होगा ।
जब कच्ची अंबियों का मौसम होता था तो पढ़ाई में ध्यान कम और अंबियां कहां से कब और कैसे तोड़ी जाएं इस फिराक में ज्यादा रहते थे । स्कूल में और आसपास लगे आमों की खुश्बू मन को लुभाती रहती थी । कभी स्कूल के बाग से तो कभी सेठी के बाग से और कभी शकुंतला के बाग से आम पर हाथ साफ करते थे । कईं बार स्कूल में जब स्पोर्टस का पीरियड़ होता था तो खेल के मैदान के साथ लगोे कलमी आम के बाग में पहुंच जाते थे । स्कूल के माली ने कईं बार हेडमास्टर को शिकायत की और हम हेड़मास्टर के दफ्तर के सामने हैंडसअप करके सज़ा भी पाते थे । लेकिन अंबियों के स्वाद के सामने सज़ा का दर्द आस पास भी नहीं फटकता था । कईं बार सेठानी शिकायत करने आती थी स्कूल में भी और घर में भी । लेकिन आम के हर मौसम में इतिहास अपने को दोहराता रहता था । कच्ची अंबियों से जो सफेद रंग की गुठलियां निकलती थी उसे हम बिजली कहते थे । और बिजली रानी का दर्जा हमारे दिलों में किसी ज्योतिषी से कम नहीं होता था । आम की गुठली को अंगूठे और तर्जनी अंगुली के बीच पकड़ कर हम सब लड़कियां पूछा करतीं ----- बिजली बिजली किरण का ब्याह किद्दर ?? बिजली हाथ से फिसल कर जिस दिशा में जाकर गिरती हम मानते थे उसी दिशा में फलां लड़की की शादी होगी. और ये सवाल सब एक दूसरे के लिए बिजली से पूछा करते थे । और अपने बाल मन से फिर आइडिया लगाते कौनसी दिशा में कौन सा शहर है अंबाला , चंड़ीगढ़ कालका शिमला दिल्ली आदि आदि । अब उस बात को याद करते हैं तो बहुत हंसी आती है । और हां कलमी आम के पेड़ बहुत छोटे छोटे होते हैं हम उन पर पील पलगड़ा ( एक खेल का नाम ) खेलते थे । इस खेल में टांग के नीचे से डंडा फेंका जाता है और तब तक बाकी बच्चों को पेड़ पर चढ़ना होता है । जो नहीं चढ़ पाता था । अगली बारी डंडा फेंकने की उसी की होती थी ।
मेरे पापा आम के बहुत बड़े पारखी और प्रेमी थे । आम का मौसम शुरू होते ही कच्ची अंबियां लानी शुरू कर देते थे पुदीने, धनिए , प्याज़ औऱ हरी मिर्च के साथ चटपटी चटनी । पापा हमें ज़रूर खिलाते कहते इससे लू नहीं लगती । टपके का आम लाते थे । उन दिनों में फ्रिज नहीं होते थे । कुएं के ठंडे पानी की बाल्टी में बर्फ की सिल्ली तोड़ कर डाल दी जाती और आम ठंडे होते रहते । हमारे पापा जी और बीजी कभी भी हमारे बिना खाना नहीं खाते थे । हम स्कूल से लौटते तो आम की बाल्टी की तरफ भागते । लेकिन चूसने वाला आम तो सारे कपड़े खराब कर देगा । पापा जी और बीजी कहते पहले मुंह हाथ धोकर कपड़े बदलो । इतना सब्र होता ही नहीं था । हम अपनी फ्रॉक उतार कर बनियान पहन कर आम खाते पापा या बीजी एक एक आम बाल्टी से निकाल कर देते पहले उसका मुंह खोलते उसमें से सफेद रंग का द्रव्य निकालते जिसे हम आम का दूध कहते थे । क्योंकि अगर वो ना निकालो तो मुंह पक जाता था । चूसने वाले आम के उस स्वाद में अब बीजी पापा का प्यार और उनकी यादें भी जुड़ गयी हैं । आम खाते खाते कई बार आंखें भर आती हैं ।
आम की कईं स्टेज आती थी पूरे मौहल्ले में आम का अचार डालना ,आम पापड़ बनान ,अमचूर के लिए अंबिया सूखाना एक बड़ा प्रोजेक्ट होता था । मेरी बीजी के हाथ की आम की मीठी चटनी पूरे आस पड़ोस और परिवार में मशहूर थी । मीठी चटनी बहुत सारी बनती थी और बोतलों में पैक हो कर अपने अपने ठिकाने पहुंचा दी जाती थीं ।
जहां हमारा बचपन बीता वहां चारों तरफ आम ही आम के पेड़ थे और भी कई तरह के फलदार पेड़ थे । हमारे स्कूल में कलमी आम के पेड़ थे और कलमी आम का बाग भी था । स्कूल के पास ही सेठी की कोठी थी जहां कईं तरह के आम के पेड़ थे । स्कूल और घर के पीछे शकुंतला का बाग था उसमें भी बहुत तरह के आम के पेड़ थे. कहने का मतलब है आम की बहार थी । आम के मौसम में हमारे बस्तों में नमक और लाल मिर्च की पुड़िया रहती थी और एक ब्लेड़ भी । अब आप पूछेंगें ब्लेड़ किसलिए - चुराई हुई कच्ची अंबियों को आधी छुट्टी में हम सब लड़कियां मिल कर काटते छोटे छोटे चौकोर टुकड़े बनाते और उसमें नमक लाल मिर्च का पाऊडर मिला कर खाते थे । आहा --- क्या स्वाद था अब भी मुंह में पानी आ रहा है । मैं दावे को साथ कह सकती हूं आपमें से बहुतों ने बचपन में ऐसे ही आम चुरा कर खाएं होगें उनमें नमक मिर्च का पाऊडर भी मिलाया होगा ।
जब कच्ची अंबियों का मौसम होता था तो पढ़ाई में ध्यान कम और अंबियां कहां से कब और कैसे तोड़ी जाएं इस फिराक में ज्यादा रहते थे । स्कूल में और आसपास लगे आमों की खुश्बू मन को लुभाती रहती थी । कभी स्कूल के बाग से तो कभी सेठी के बाग से और कभी शकुंतला के बाग से आम पर हाथ साफ करते थे । कईं बार स्कूल में जब स्पोर्टस का पीरियड़ होता था तो खेल के मैदान के साथ लगोे कलमी आम के बाग में पहुंच जाते थे । स्कूल के माली ने कईं बार हेडमास्टर को शिकायत की और हम हेड़मास्टर के दफ्तर के सामने हैंडसअप करके सज़ा भी पाते थे । लेकिन अंबियों के स्वाद के सामने सज़ा का दर्द आस पास भी नहीं फटकता था । कईं बार सेठानी शिकायत करने आती थी स्कूल में भी और घर में भी । लेकिन आम के हर मौसम में इतिहास अपने को दोहराता रहता था । कच्ची अंबियों से जो सफेद रंग की गुठलियां निकलती थी उसे हम बिजली कहते थे । और बिजली रानी का दर्जा हमारे दिलों में किसी ज्योतिषी से कम नहीं होता था । आम की गुठली को अंगूठे और तर्जनी अंगुली के बीच पकड़ कर हम सब लड़कियां पूछा करतीं ----- बिजली बिजली किरण का ब्याह किद्दर ?? बिजली हाथ से फिसल कर जिस दिशा में जाकर गिरती हम मानते थे उसी दिशा में फलां लड़की की शादी होगी. और ये सवाल सब एक दूसरे के लिए बिजली से पूछा करते थे । और अपने बाल मन से फिर आइडिया लगाते कौनसी दिशा में कौन सा शहर है अंबाला , चंड़ीगढ़ कालका शिमला दिल्ली आदि आदि । अब उस बात को याद करते हैं तो बहुत हंसी आती है । और हां कलमी आम के पेड़ बहुत छोटे छोटे होते हैं हम उन पर पील पलगड़ा ( एक खेल का नाम ) खेलते थे । इस खेल में टांग के नीचे से डंडा फेंका जाता है और तब तक बाकी बच्चों को पेड़ पर चढ़ना होता है । जो नहीं चढ़ पाता था । अगली बारी डंडा फेंकने की उसी की होती थी ।
मेरे पापा आम के बहुत बड़े पारखी और प्रेमी थे । आम का मौसम शुरू होते ही कच्ची अंबियां लानी शुरू कर देते थे पुदीने, धनिए , प्याज़ औऱ हरी मिर्च के साथ चटपटी चटनी । पापा हमें ज़रूर खिलाते कहते इससे लू नहीं लगती । टपके का आम लाते थे । उन दिनों में फ्रिज नहीं होते थे । कुएं के ठंडे पानी की बाल्टी में बर्फ की सिल्ली तोड़ कर डाल दी जाती और आम ठंडे होते रहते । हमारे पापा जी और बीजी कभी भी हमारे बिना खाना नहीं खाते थे । हम स्कूल से लौटते तो आम की बाल्टी की तरफ भागते । लेकिन चूसने वाला आम तो सारे कपड़े खराब कर देगा । पापा जी और बीजी कहते पहले मुंह हाथ धोकर कपड़े बदलो । इतना सब्र होता ही नहीं था । हम अपनी फ्रॉक उतार कर बनियान पहन कर आम खाते पापा या बीजी एक एक आम बाल्टी से निकाल कर देते पहले उसका मुंह खोलते उसमें से सफेद रंग का द्रव्य निकालते जिसे हम आम का दूध कहते थे । क्योंकि अगर वो ना निकालो तो मुंह पक जाता था । चूसने वाले आम के उस स्वाद में अब बीजी पापा का प्यार और उनकी यादें भी जुड़ गयी हैं । आम खाते खाते कई बार आंखें भर आती हैं ।
आम की कईं स्टेज आती थी पूरे मौहल्ले में आम का अचार डालना ,आम पापड़ बनान ,अमचूर के लिए अंबिया सूखाना एक बड़ा प्रोजेक्ट होता था । मेरी बीजी के हाथ की आम की मीठी चटनी पूरे आस पड़ोस और परिवार में मशहूर थी । मीठी चटनी बहुत सारी बनती थी और बोतलों में पैक हो कर अपने अपने ठिकाने पहुंचा दी जाती थीं ।
जिस किसी के भी घर के सामने मंजी पर चादर बिछा कर अंबियां सूखायी जाती थी चलते फिरते मुठ्ठी भर लेते थे और मोटे नमक के साथ मिल कर खाते । वो स्वाद अब तक जुबान पर रहता है और अपनी हम उम्र सहेलियों के साथ चोरी छिपे खाई गई अंबियों की यादें अब तक ज्यों की ज्यों हैं । हमारे घर
में आम का अचार मेरे पापा और मेरी दादी डालते थे । कमरा बंद करके , बहुत साफ सफाई के साथ सबकी नज़र बचाकर आम का अचार डलता था । कहते हैं अचार डालते हुए किसी की नज़र नहीं पड़नी चाहिए वरना खराब हो जाता है ।
और फिर आता पके हुए दशहरी , लंगड़ा , बनारसी और चौसा आम का मौसम ।मेरे पापा जी हर रोज़ चुन चुन कर आम लाते लेकिन एक बात का ध्यान रखते कि एक दिन अगर दशहरी आता तो दशहरी ही आता , दूसरे दिन लंगड़ा या बनारसी आता तो वही आता । और पहली बार जब भी मौसम का नया फल घर में आता था तो भगवान को भोग लगा कर मंदिर भेज दिया जाता । केवल आम ही नहीं हर फल, हर सब्जी के साथ ऐसा ही होता था । यानि भगवान और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने का एक तरीका ।
इन आमों को लेकर मेरी बहन और मुझ में पूरा पूरा मुकाबला रहता था । असली लड़ाई आम की गुठली को लेकर होती थी । आम की फांको को लेकर नहीं । गुठली किसे सबसे ज्यादा मिलती हैं इस पर पूरी नज़र रहती थी । मेरे बीजी पापा जी बहुत चतुराई से हमारा गुठली विवाद सुलझाया करते थे । कुछ भी कहो जो आनंद और तृप्ति गुठली चूस कर मिलती थी वो आम की फांकों में कहां थी । आम की बात चले और दिल्ली आकर मेरी पक्की दोस्त बनी SEEMA SUBNNA उर्फ सीमा गोयल आम के साथ याद ना आए हो ही नहीं सकता । सीमा यूपी के धामपुर की रहने वाली है उनकी बड़ी बड़ी अमराइंयां ( आम के बगीचे ) हैं । सीमा आम के मौसम में दशहरी आम की पेटियां लाती थी । मेरे पापा बहुत खुश होते थे आम की क्वालिटी और शुद्धता से क्योंकि पता था कि ये आम कोल्ड स्टोर में नहीं दाल पर पक कर आए हैं ।
में आम का अचार मेरे पापा और मेरी दादी डालते थे । कमरा बंद करके , बहुत साफ सफाई के साथ सबकी नज़र बचाकर आम का अचार डलता था । कहते हैं अचार डालते हुए किसी की नज़र नहीं पड़नी चाहिए वरना खराब हो जाता है ।
और फिर आता पके हुए दशहरी , लंगड़ा , बनारसी और चौसा आम का मौसम ।मेरे पापा जी हर रोज़ चुन चुन कर आम लाते लेकिन एक बात का ध्यान रखते कि एक दिन अगर दशहरी आता तो दशहरी ही आता , दूसरे दिन लंगड़ा या बनारसी आता तो वही आता । और पहली बार जब भी मौसम का नया फल घर में आता था तो भगवान को भोग लगा कर मंदिर भेज दिया जाता । केवल आम ही नहीं हर फल, हर सब्जी के साथ ऐसा ही होता था । यानि भगवान और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने का एक तरीका ।
इन आमों को लेकर मेरी बहन और मुझ में पूरा पूरा मुकाबला रहता था । असली लड़ाई आम की गुठली को लेकर होती थी । आम की फांको को लेकर नहीं । गुठली किसे सबसे ज्यादा मिलती हैं इस पर पूरी नज़र रहती थी । मेरे बीजी पापा जी बहुत चतुराई से हमारा गुठली विवाद सुलझाया करते थे । कुछ भी कहो जो आनंद और तृप्ति गुठली चूस कर मिलती थी वो आम की फांकों में कहां थी । आम की बात चले और दिल्ली आकर मेरी पक्की दोस्त बनी SEEMA SUBNNA उर्फ सीमा गोयल आम के साथ याद ना आए हो ही नहीं सकता । सीमा यूपी के धामपुर की रहने वाली है उनकी बड़ी बड़ी अमराइंयां ( आम के बगीचे ) हैं । सीमा आम के मौसम में दशहरी आम की पेटियां लाती थी । मेरे पापा बहुत खुश होते थे आम की क्वालिटी और शुद्धता से क्योंकि पता था कि ये आम कोल्ड स्टोर में नहीं दाल पर पक कर आए हैं ।
अब हम देखते हैं हमारे बच्चे( दोनों बेटे हैं )उनकी गुठली में कोई रूचि ही नहीं है । उन्हें लगता है हाथ खराब हो जाएंगें और गुठली चूसना थोड़ा UNCIVILIZED है । हम अपने बचपन की आम गाथा सुना कर उन्हें प्रेरणा देने की कोशिश करते हैं लेकिन उन पर एक रत्ती भी असर नहीं होता । शायद ज़माना बदल रहा है ।
लेकिन हमारे लिए तो आम हर साल यादों का पिटारा , भावनाओं का सैलाब लेकर आता है । आम से केवल जीभ का स्वाद ही नहीं दिल के रिश्ते और यादें जुड़ी हुई हैं । अपने बीजी पापा जी की इतनी प्यारी यादें जुड़ी हैं सोचती हूं हम कितने सौभाग्यशाली हैं हमें इतना प्यार करने वाले बीजी पापा जी मिले । आम फलों का राजा होने के साथ साथ मेरे बचपन की मीठी मीठी यादों , सहेलियों के साथ चोरी करके खायी गयी अंबियों से जुड़ी शरारतों को ताज़ा करने का एक माध्यम भी है । मैं और मेरी बहन जब भी आम खाते हैं तो कईं बार इन सब बातों का ज़िक्र करते हैं जो मैनें आपको बतायी ।और आम के सवाद के साथ रिश्तों की मिठास का आनंद भी लेते हैं । ये अलग बात है कि अब गुठली को लेकर लड़ाई बंद हुए कई 20 तीस बीत गए हैं ।
लेकिन हमारे लिए तो आम हर साल यादों का पिटारा , भावनाओं का सैलाब लेकर आता है । आम से केवल जीभ का स्वाद ही नहीं दिल के रिश्ते और यादें जुड़ी हुई हैं । अपने बीजी पापा जी की इतनी प्यारी यादें जुड़ी हैं सोचती हूं हम कितने सौभाग्यशाली हैं हमें इतना प्यार करने वाले बीजी पापा जी मिले । आम फलों का राजा होने के साथ साथ मेरे बचपन की मीठी मीठी यादों , सहेलियों के साथ चोरी करके खायी गयी अंबियों से जुड़ी शरारतों को ताज़ा करने का एक माध्यम भी है । मैं और मेरी बहन जब भी आम खाते हैं तो कईं बार इन सब बातों का ज़िक्र करते हैं जो मैनें आपको बतायी ।और आम के सवाद के साथ रिश्तों की मिठास का आनंद भी लेते हैं । ये अलग बात है कि अब गुठली को लेकर लड़ाई बंद हुए कई 20 तीस बीत गए हैं ।
( मेरी आम गाथा पढ़ने के बाद शायद आप में से कईं को एपने बचपन की आम से जुड़ी यादें ताज़ा हो जाएंगी आप चाहे तो आप भी शेयर करें । आप के साथ हम भी करेंगें आम की यादों का सफर )
बहुत अच्छा लिखा है सर्जना जी। आम तो बस आम है उसकी तारीफ और स्वाद के बारे में जितना भी लिखा जाए उतना कम है।
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