मंगलवार, अगस्त 2

वो तीज, वो सावन के झूले, अब कहाँ...सर्जना शर्मा


आज  सावन की हरियाली तीज है, लेकिन तीज की उमंग  और उल्लास कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। दिखाई देता है तो बस पांच सितारा होटलों में लगने वाले तीज मेलों में या फिर बड़े संपन्न औद्योगिक घरानों की महिलाएं चैरिटी के लिए तीज मेले लगाती हैं। बरसों से लग रहे इन मेलों में कोई नयापन नहीं है। ये वैसे ही हैं जैसे दिल्ली में और भी कईं प्रदर्शिनयां लगती रहतीं हैं ।
वैसे देखा जाए तो बदलते वक्त की शायद यहीं मांग है। अब किसके पास समय है कि वो सावन के झूले झूले या फिर अपनी सखियों सहेलियों के साथ तीज का त्यौहार मनाएं।  कुछ हाऊंसिंग सोसायटियां भी अपने परिसरों में तीज मनाती हैं ।

 
हरियाली तीज आते आते सावन आधे से ज्यादा बीत जाता है। ना तो अभी तक सावन की  घटाएं वैसे घिर कर आई हैं जैसे पहले घिरती थीं और ना ही सावन झूम कर बरसा है कम से कम दिल्ली में तो नहीं बरसा। दिल्ली में कहीं भी किसी पेड़ पर सावन के झूले भी पड़े नहीं दिखे। शायद इंसान के साथ साथ प्रकृति भी बदल रही है। सावन ही नहीं बरसता तो झूले कैसे ? 
            
 हमारे बचपन का सावन बरसता भी था और झूलों का आनंद भी अपार था। जहां हम रहते थे वो शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसी एक छोटी सी सुंदर जगह थी। प्रकृति की सुंदरता चारों और बिखरी हुई थी। घर के आस पास मज़बूत पेड़ थे । लेकिन सावन के झूले के लिए ज्यादातर नीम के पेड़ और शीशम के पेड़ पर सबकी नज़र रहती थी । सावन तो बाद में आता पहले चिंता रहती थी "टाणा मल्ल्कने " यानि पेड़ की मज़बूत और ऊंची शाखा पर कब्ज़ा करने की । आषाढ़ के महीने  में ही टाणे पर एक बोरी बांध कर हम लोग सुनिश्चित कर लेते थे कि बस अब तो इस पेड़ पर हमारा ही झूला डलेगा । आस पडोस में कम से कम हमारा पचास साठ बच्चों का समूह था । मज़बूत तने पर कब्जा करने के लिए सबसे ज्यादा मांग रहती मेरी बहन की, वो बहुत फुर्तीली थी बड़े से बड़े पेड़ पर बंदर की तरह चढ़ जाती और फिर उतर भी आती । वही सबकी बोरियां बांध कर आती और फिर झूले की रस्सी डालने के लिए भी मेरी बहन की चिरौरी करने बच्चे हमारे घर पहुंच जाते । झूले की रस्सी आम रस्सी जैसी नहीं होती थी रंगीन सतरंगी रस्सी और झूले में डलने वाली पटरी भी बहुत सुंदर नक्काशी दार होती थी । आषाढ़ की पूर्णिमा की शाम को झूले भी डाल दिए जाते । सब झूले मेरी बहन ही डालती । रस्सी लेकर पेड़ से चढ़ती और फिर झूला डाल कर पेड़ से नहीं रस्सी पकड़ कर ही उतर आती  और एक नियम था कि जो झूला डालेगा पहले नौ झूले उसे ही दिए जायेंगें । और फिर झूले में सुंदर सी पटरी लगा कर मेरी बहन को बैठाया जाता और नौ झूले दिये जाते । और फिर तो झूलों की बहार आ जाती ।और सबसे ज्यादा भीड़ रहती उस झूले पर जिस की पींग सबसे ऊंचा जाती । झूला बहुत ऊंचा जाए उसके लिए एक बहुत नायाब तरीका हम सबने खोज निकाला था । हम एक पतली मुलायम रस्सी लाते उसे झूले पर थोड़ा ऊंचा करके ऐसे बांधते की रस्सी दोनों तरफ आधी आधी रहे । इसे हम लश्कर कहते  थे ।रस्सी का एक हिस्सा एक बच्चा पकड़ता और दूसरी तरफ का दूसरा । और फिऱ जोर लगा कर झूला झूलाते धीरे धीरे झूला बहुत ऊंचा बढ़ जाता । इसमें बदमाशी की जितनी संभावनाएं होती वो बच्चे इस्तेमाल करते मसलन जब झूला बहुत उंचाई पर होता तो लश्कर को झटका दे देते जिससे झूले में झटका लगता और गिरने की संभावना बनी रहती । वैसे तो ये सिर्फ डरा कर मज़े  लेने के लिए किया जाता था लेकिन एक बार एक लड़की बहुत उंचाई से गिर गयी और उसकी नाक टूट गयी । चोट लग जाए ऐसा तो कोई नहीं चाहता था लेकिन उस दिन सबको दुख बहुत हुआ और जो डांट पड़ी उसका अंदाज़ तो आप लगा ही सकते हैं । सावन के दिनों में झूलों में हमारी जान बसती थी ।

स्कूल बिल्कुल पास था दूसरी घंटी बजने तक झूले झूलते, आधी छुट्टी में खाने के बजाए झूले में ज्यादा दिलचस्पी रहती. वो सब बच्चे भी आ जाते जो आस पास के गांवों और चंड़ी मंदिर कैंच से आया करते थे । समय कम और बच्चे ज्यादा इसलिए झूलों की, राशनिंग होती, तय कर लिया जाता एक बच्चा कितने झूले लेगा । लेकिन उस इंतज़ार का और फिर झूले के आनंद का जो मज़ा था उसे आज भी याद कर मन नाचने लगता है ।
                
दोहरा झूला डाल कर उसमें छोटी सी मंजी यानि खटोला भी डालते । उस पर चादर इस तरह से तानते कि वो घऱ जैसा बन जाता उसमें बैठ कर खाना खाते थे । सावन में चाहे हल्की फुहारे पड़ती या फिर तेज बारिश हम लोग झूले को मोह नहीं छोड़  पाते थे । सावन शुरू होने  से पहले ही सब नवविवाहित लड़कियां ससुराल से अपने मायके लौट आतीं । और नवविवाहित बहुएं अपने मायके चली जातीं ।

कहा जाता पहला सावन ससुराल में नहीं बीतना  चाहिए । लेकिन अब जब अपनी संस्कृति के बारे में जानने समझ ने की कोशिस कर रही हूं तो पता चला  है कि सावन में ससुराल में ना रहने की कोई धार्मिक  वजह नहीं थी बल्कि ये पति पत्नी की सेहत से जुड़ा गंभीर मसला था । हमारी परंपरा में सावन के महीने में पुरूषों को ब्रह्मचर्य के पालन की अनिवार्यता थी, क्योंकि सावन के महीने में पुरूषों को अपने वीर्य का सरंक्षण करना चाहिए आयुर्वेद तो यही कहता है । इस महीने में गर्भ ना ठहरे, इसका पूरा प्रयास रहता था, क्योंकि इस महीने में ठहरे गर्भ से पैदा हुए बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से बहुत बलवान नहीं होते । इसलिए पत्नी को पति से दूर रखने का अच्छा तरीका था कि मायके भेज दो लेकिन आज शायद ये संभव नहीं हो पायेगा .। पति पत्नी दोनों कामकाजी और उपर से न्यूक्लीयर फैमिली ।

हमारे यहां बड़ा बाज़ार नहीं था लेकिन बहुत विश्वस्त फेरी वाले चक्कर काटने शुरू कर देते थे । चूड़ी , श्रृंगार का सामान , कपड़े साड़ियां , जरी गोटा, यहां तक कि सोने -चांदी के गहने वाला भी । महिलाओं के साथ इनकी गजब  की आत्मीयता होती । सामान किश्तों में खरीदा जाता था । उन्हें  सबकी आवश्यकताएं पता होती, किसको बहू का सिधारा भेजना है, किसको बेटी की ससुराल  से  सिंधारा लाने वालों को तोहफे देने हैं । यानि ना खाता ना बही बस जुबान का भरोसा ।  और आज की भाषा में कहें तो मोबाइल शॉप । इन के साथ रिश्ता केवल खरीद फ़रोख्त तक ही सीमित नहीं था, सुख दुख के गहरे नाते भी थे । हम तो बच्चे थे लेकिन देखते थे कि सब महिलाओं से दुकानदार दुनियादारी की बाते करते  खाते पीते    । कपड़े लाने वाले का नाम सरना था, सुनार भोला था । जब .ये लोग आते तो महिलाओं के साथ साथ हम भी कौतुहल वश इन्हें घेर कर खड़े हो जाते   । लड़कियों के नाक कान भी भोला ही बिंधता था । लो जी ज्यादातर  शॉपिंग   तो घर बैठे ही हो जाया करती थी । 
सावन के महीने में मिठाइयां विशेष,कर घेवर खूब खाने को । नवविवाहिताओं के ससुराल से सिंधारा आता तो शान से सबको दिखाया जाता आस पड़ोस के गली मौहल्ले के सब लोग सिंधारा देखने आते, और साथ ही वो सामान भी सजा दिया जाता था, जो ससुराल वालों के लड़की वाले देते क्योंकि लड़की की ससुराल से जितना आया उसका दोगुना तो वापस करना ही होता था । और फिर जो मिठाई और फल सिंधारे में आए होते उन्हें पूरे पड़ोस में बांटा जाता । इस तरह की संस्कृति दिल्ली के पॉश इलाकों में देखने को नहीं मिलती । किसी को किसी से बात करने की फुरसत ही नहीं और अगर हो भी तो इगो आड़े आ जाती है ।

 तीज से पहले नए कपड़े सिल जाते क्योंकि ये लडकियों का त्यौहार है । चुन्नियों में गोटे लगाए जाते । और फिर तीज की एक रात पहले मेंहदी लगायी जाती । मेरी बीजी हम दोनों बहनों को बड़े चाव से मेंहदी लगातीं । उन्हें आजकल जैसी मेंहदीं नहीं लगानी आती थी जिसे हम उस समय राजस्थानी मेंहदी कहते थे । वो मुठ्टी की मेंहदी लगा कर हमारे दोनों हाथ कस कर एक कपड़े से बांध देतीं और फिर सुबह ही हाथ खोले जाते । हम सब लड़कियां सबसे पहले उठ कर एक दूसरे से ये पूछने भागते थे  कि किसकी मेंहदी कैसी रची, . किसका रंग कैसा आया । हम लोगों का विश्वास था कि जिसकी मेंहदी सबसे गाढ़ी रचेगी उसकी सास उसे सबसे ज्यादा प्यार करेगी । बचपन का भोलापन तो देखिए जिस लड़की की मेंहदीं का रंग हल्का होता था, वो सचमुच निराश हो जाती ये सोच कर कि उसकी सास तो उसे प्यार ही नहीं करेगी ।
                                         
तीज वाले दिन स्कूल जाने का तो सवाल ही नहीं , स्कूल से छुट्टी, सज धज कर हम पहुंच जाते अपने झूलों पर और हमारी बीजी उस दिन दस ग्यारह बजे तक किचन में व्यस्त रहती पक्का खाना बनता । खीर , पूड़ी , तीन चार तरह की सब्जियां अपने लिए ही नहीं आस पड़ोस के लिए भी । सबके घर भी थाल सजा कर मेरी बीजी भेजती  ।
                                            
घर के काम काज से निपट कर फिर महिलाएं आ जातीं झूला झूलने सब सजी धजी और क्या सुंदर गीत गातीं । उनमें से एक मुझे याद है -- कच्चे नीम के निंबोली लागी सावनियां कब आवेंगें , दादा दूर मत ब्याहाइयो दादी नहीं बुलाने की , ये उस समय का बना गीत होगा  जब यातायात के साधन बहुत अच्छे नहीं थे, ये कुंवारी लड़की की चिंता है औऱ दादा से अनुरोध है कि मेरी शादी बहुत दूर मत कर देना । लेकिन दादा अपनी पोती को विश्वास दिलाता है, रेल की सवारी झट बुला लूंगा ।
 
नाच गाना झूला मस्ती खाना पीना और तीज बीत जाती फिर इंतजार शुरू हो जाता अगले साल की तीज का । मेरी बीजी बताती हैं कि उनकी तीज हमसे अलग होती थी । वो और उनकी सहेलियां उस दिन गौरां की शादी करती, बारात निकालती, भगवान को भी झूले झुलातीं और वो बताती है कि उनके गांव में मनियार और बजाजी महीनों पहले डेरा डाल लेते थे । मनियार यानि चूड़ी वाला और बजाजी यानि कपड़े वाला । हमारी मां के समय से हमारे वक्त की तीज बदली औऱ अब तो तीज का रूप रंग बड़े शहरों में बदलता जा रहा है । छोटे  परंपरागत शहरों में तो अब भी तीज की पुरानी रंगत दिखती है लेकिन दिल्ली में तो तीज मेलों तक ही सिमटी दिख रही है । 

 

17 टिप्‍पणियां:

  1. आप की पोस्ट की खुशबू तीज का अहसास कराने के लिए काफ़ी है...

    अब कहां ये गाने सुनने को मिलते हैं...पड़ गए झूले, सावन रूत आई रे...

    तीज की सभी को बहुत-बहुत बधाई...

    जय हिंद...

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  2. धन्यवाद खुशदीप जी तीज का सामूहिक उत्सव दिल्ली जैसे शहरों में तो शायद ही अब देखने को मिले पांच सितारा होटलों और बड़े मॉल्स में मार्किटिंग के लिहाज़ से तीज मेले ज़रूर दिखते रहेंगें

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  3. झूले डले हुए हैं,गाँव की बेटी बहुएं आई हुई हैं। मस्त मेला लगा है। घेवर के साथ देवर भी झूलेंगे क्योंकि इस साल सिंजारा और तीज एक ही दिन है। गीतों की जगह मोबाईल से गाने बज रहे हैं। हाँ मणियार का काम दुकान वाले कर रहे हैं। सावन की बरसात हो रही है।

    आप भी आ जाईए, तीज के मजे लेने हैं तो।

    सुंदर संस्मरण
    आभार

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  4. पहले की सावन की याद दिलाती हुई पोस्ट अब तो बस निभा रहे रहे है

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  5. हाय सर्जना जी आपकी रसभरी बातो ने तो मन मोह लिया और पुरानी यादें ताज़ा कर दीं और जिस ढंग से आपने वर्णन किया है तो यादो के सारे पन्ने खुल गये…………सच बहुत झूला झूला है और खटोला डाल कर झूलने का अपना ही मज़ा होता था……………आपको तीज की हार्दिक बधाई।

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  6. sajna ji purane dino ki yaad dila di abhi chote shehro mein to thoda bahut teej tyuhar ka rang dikh jata hai per metro cities mein to sab gyab ho raha hai

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  7. परम्पराओं के आनन्द से भरी पोस्ट।

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  8. ललित जी निमंत्रण के लिए धन्यवाद , आप बहुत सौभाग्यशाली है तीज के पारंपरिक रंग आपके यहां है . सिंजारा क्या होता है ये मुझे नहीं पता आप बताएंगें तो अच्छा लगेगा

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  9. सुनील जी सही कह रहे हैं आप अब तो बस हर त्यौहार बाज़ार से जुड़ गया है परंपराएं रहे ना रहें लेकिन त्यौहार से जुड़ी प्रोडक्ट बेचने वाले इसे अपने फायदे के लिए भुना लेते हैं

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  10. वंदना जी आपकी टिप्पणी का एक एक शब्द आपके मन की भी टीस को कह रहा है लगता है आपने भी सावन के झूलों के अपने बचपन में बहुत मज़े लिए हैं चलिए इसी बहाने आपके बचपन की तीज भी यादों के गलियारों में लौट आयी आपको भी हरियाली तीज की बधाई

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  11. रोशी जी समय बदलता है तो बहुत कुछ बदल जाता है छोटे शहरों में तीज के पारंपरिक रंग अभी बाकी हैं मन करता है कभी तीज पर राजस्थान जाकर मज़ा लिया जाए । इसके तो अजित जी से संपर्क करना पड़ेगा

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  12. प्रवीण जी ये त्यौहार हमें अपनी जड़ों से जोड़े रहते हैं और एकरस हो चले जीवन को आनंद उल्लास से भर जाते हैं

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  13. सर्जना जी, तीज और सिंजारा के विषय में जानकारीयहाँ और यहाँ पढें

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  14. ललित जी धन्यवाद सिंजारा के बारे में पढ़ कर जानकारी बढ़ी । लेकिन घेवर का क्या होगा उसके बारे में तो केवल पढ़ कर संतोष नहीं किया जा सकता वो तो आपको भिजवाना ही पड़ेगा

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  15. सचमुच, जब पेड ही नहीं रहेंगे, तो फिर झूले तो यादों में रह जाएंगे बस।

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    कम्‍प्‍यूटर से तेज़!
    इस दर्द की दवा क्‍या है....

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  16. कच्चे नीम के निंबोली लागी सावनियां कब आवेंगें , दादा दूर मत ब्याहाइयो दादी नहीं बुलाने की ,

    अरे वाह! आपने इतना खूबसूरत संस्मरण लिख डाला और हम अभी तक वंचित रहे.'लश्कर' से भी क्या रोमांच किया जाता होगा.बातों बातों में ब्रह्मचर्य का भी ज्ञान दे दिया आपने. बहुत ही दिल से लिखा गया है यह लेख, पढकर आनंदित हो गया है मन.
    आभार और दिल से प्रणाम आपको.

    रक्षा बंधन के पावन पर्व की आपको हार्दिक शुभ कामनाएं.

    समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर भी आईयेगा.

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  17. आपको 'देशनामा' पर देखकर खुशी मिली.
    अब अपने इस भाई को भी ध्यान में रखियेगा.
    बहुत समय से इंतजार है आपका.

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