सर्जना शर्मा
जन्माष्टमी से दो दिन पहले अखबार के साथ एक सुंदर सा रंगीन हैंडआऊट भी आया । ये हमारे इलाके के सनातन धर्म मंदिर के श्री कृष्णजन्माष्टमी समारोह के बारे में था । क्या क्या कार्यक्रम होंगें इसका पूरा ब्यौरा ,आयोजकों के नामों की लंबी चौड़ी सूची जैसा कि अक्सर होता ही है किसी का भी नाम छूटने ना पाए इसकी पूरी कोशिश आयोजकों की रहती है । लेकिन इसमें एक बात जो सबसे अलग थी वो ये कि
चरणामृत सेवा ---- कमल चौधरी ( सभी नाम बदले हुए हैं )
केले का प्रसाद ------- अनुज गुप्ता
सेब का प्रसाद ----- संजय सूद
पंजीरी ------ राज किशोर तनेजा
धनिए का प्रसाद --- विनोद अग्रवाल
और इस तरह से एक लंबी सूची थी । ऐसा मैनें तो कम से कम पहली बार देखा कि भगवान को चढ़ाने वाले भोग का भी बखान किया जाए और बाकायदा नाम छपवाए जाएं । ये भगवान के प्रति भक्ति भाव है या जन्माष्टमी के बहाने अपने नाम का गुणगान करने की इच्छा पूर्ति । आज धार्मिक आयोजन शहर में अपनी धाक जमाने का माध्यम बन चुके हैं । व्यापारी वर्ग इसमें आमतौर पर आगे रहता है और मुख्य अतिथी ज्यादातर बड़े पदों पर बैठे अफसर या फिर सियासी दलों के नेता होते हैं । दो साल पहले कृष्ण जन्माष्टमी का एक निमंत्रण आया . कवरेज के इरादे से भेजा गया था . साथ में दो तीन वीआईपी पास भी भेजे गए । दिल्ली में इनका जन्माष्टमी उत्सव काफी बड़ा और भव्य होता है । फिल्म जगत में बरसों अपनी सुंदरता के बल पर टिकी रहने वाली एक जानी मानी अभिनेत्री और नृत्यांगना इनके यहां नृ्त्य नाटिका प्रस्तुत करती हैं । वहां जो कवर करने गए और जो वीआईपी पास पर गए दोनो के ही अनुभव बहुत खराब रहे । रिपोर्टर को बैठने तक की जगह नहीं दी गयी । पानी तक नहीं पूछा और जिन्हें वीआईपी पास दिया था उन्होने आम लोगों से भी ज्यादा धक्के खाए और अंत में आम जनता के बीच में ही बैठे । लेकिन आयोजकों ने अपने लिए स्टेज के सामने बढ़िया सोफे और कुर्सियां लगवा रखी थीं । औऱ वहां एसी भी लगवा रखे थे । खाना पीना भी बहुत बढ़िया चल रहा था क्योंकि वहां नेता और अफसर जो बैठे थे ।
एक और सज्जन हैं, बड़े उद्योगपति हैं, निजी कॉलेज स्कूल भी चलाते हैं. उन्होने मंदिर भी बनवा रखे हैं । साल में दो तीन बार भव्य आयोजन करते हैं जिसमें जाने माने भजन गायक , और फिल्मी सितारे आते हैं, हेलीकॉप्टर से फूलों की वर्षा करवाते हैं, गायकों को लाखों रूपए देते हैं । लेकिन किसी गरीब और ज़रूरतमंद की मदद करने को कह दिया जाए तो सुनी अनसुनी कर देते हैं । बात को ऐसा टालते हैं कि पूछिए मत, टरकाने की कला भी उन्हें बहुत अच्छी आती है ।
भगवान स्वयं कहते हैं कि --"-मोहे कपट , छल छिद्र ना भावा , सरल स्वभाव सो मोही पावा "। उन्हें तो केवल भक्ति भाव चाहिए लेकिन आज धर्म के नाम पर आडंबर और दिखावा ज्यादा है । जब तन मन धन सब है तेरा , तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा का भाव इंसान के मन में सचमुच आ जाएगा तो ऐसे दिखावे करने की जरूरत ही नहीं रहेगी । त्वदीय वस्तु गोविंदं तुभ्यं समर्पयामि हमारी भक्ति परंपरा का अंग रहा है । सनातन परंपरा में मान्यता है हमारे पास जो भी है, सब कुछ उसी परमपिता परमेश्वर और जगत जननी मां का आशीर्वाद है। जब हम उसी का उसको अर्पण करते हैं तो फिर उसका ढ़ोल क्यों पीटा जाना चाहिए ?
सभी भक्ति और धर्म की आड़ में अपना प्रचार प्रसार करते हों, ऐसा भी नहीं है । एक जाना माना बड़ा घराना है, हरिद्वार में हर की पैड़ी उनके पुरखों ने बनवायी और मालिकाना हक भी उन्हीं का है । उन्हीं के परिवार के एक व्यक्ति ने बताया कि उनके पुरखों ने वहां अपने नाम का जो पत्थर लगवाया वो ऐसी जगह पर लगवाया कि जब लोग गंगा जी से स्नान करके बाहर आएं तो उनके चरणों में लगी गंगा जी की रज पत्थर पर लगे ।
हमारा इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है । पुरी में भगवान जगन्नाथ की मूर्तियां बनवा कर प्रतिष्ठित करवायी थी महान प्रतापी राजा इंद्रद्युम्न ने । भगवान जगन्नाथ के कारण राजा इंद्रद्युम्न ने अपना मालवा का राज पाठ छोड़ा और सब को लेकर पुरूषोत्तम क्षेत्र पुरी में आ गए । पुरी आज चार धामों में से एक है । ' जगन्नाथ रहस्य ' किताब अगर आप पढ़ेगें तो पायेंगें कि राजा इंद्रद्युम्न ने भगवान जगन्नाथ से प्रार्थना की थी --- मेरे कुल में कोई ना रहे ताकि कल किसी को ये अभिमान ना हो कि ये विशाल और भव्य मंदिर मेरे पुरखों ने बनवाया । देखा जाए तो ये भगवान के प्रति अनन्य समर्पण है ।
भगवान राजा इंद्रद्युम्न जैसे भक्तों के भाव का आदर ना करते हो ऐसा संभव ही नहीं है । जब तक भगवान जगन्नाथ का नाम रहेगा तब तक राजा इंद्रद्युम्न का नाम भी रहेगा । भगवान जगन्नाथ उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के विग्रह पुरी के श्री मंदिर में एक तो काठ के बने हैं दूसरे अधूरे हैं । इन विग्रहों का निर्माण राजा इंद्रद्युम्न की रानी गुंडीचा के महल में स्वयं देव शिल्पी विश्वकर्मा ने किया था । लेकिन रानी गुंडीचा ने विश्वकर्मा की शर्त का पालन नहीं किया इसलिए विश्वकर्मा अधूरे विग्रह छोड़ कर चले गए थे । लेकिन भगवान का भाव भी देखिए भगवान जगन्नाथ ने राजा से कहा तुम मेरा मंदिर बनवा कर मुझे इसी रूप में स्थापित करो । और भगवान ने राजा को वचन भी दिया कि ---"हर वर्ष मैं तुम्हारे बिंदु सरोवर पर दस दिन के लिए आऊंगा । उन दिनों में तैंतीस करोड़ देवी देवता पुरी में निवास करेंगें सारे तीर्थ भी यहां निवास करेंगें जो गुंडीचा में मेरे दर्शन करेंगा उसे जन्म मरण से मुक्ति मिल जाएगी "।
भगवान जगन्नाथ आज तक अपना वचन निभा रहे हैं और निभाते रहेंगें । हर वर्ष आषाढ़ के महीने में वो सुंदर भव्य और विशाल रथ पर सवार होकर अपने भाई बहन के साथ गुंडीचा मंदिर जाते हैं । रानी गुंडीचा को भगवान की मौसी का दर्जा दिया जाता है । और यही कहलाती है पुरी की रथ यात्रा जिसे गुंडीचा यात्रा भी कहते हैं। देश विदेश से लाखों श्रद्धालु भगवान की रथ यात्रा देखने आते हैं । भक्त के भाव में समर्पण हो तो भगवान स्वंय चल कर आते हैं ।
जब तक मैं और मेरा का भाव रहेगा तब तक भक्ति खरी नहीं हो सकती । जैसा कि महान कवि और संत कबीर ने कहा है -- जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं तो मैं नहीं । सब जानते हैं कबीर ने हिंदु मुस्लिम दोनों को ही धर्म के दिखावे पर आड़े हाथों लिया । जितना मुल्ला को कोसा उतना ही पंडित को कोसा । धर्म के प्रति उनकी अरूचि थी ऐसा भी नहीं वो केवल एक कवि नहीं महान योगी और सिद्ध भी थे तभी तो उन्होने कहा कि जो मैं को खत्म कर लेगा वही परमात्मा को पायेगा । मैं हमारे भीतर का अहम है , गुमान है अपने अस्तित्व का । उन्होने जब अपने भीतर के मैं को मिटाकर परम पिता परमात्मा की शरण ली होगी तभी तो उनका ये भाव आया---- जब हरि हैं तब मैं नहीं ।
भगवान को किसने कितने किलो सोना चढ़ाया किसने चांदी का विशाल छत्र चढ़ाया ऐसी खबरें टी वी और अखबारों में भी अकसर आती रहती हैं । शिरड़ी के सत्य सांई बाबा के मंदिर और तिरूपति में भगवान वैंकटयेश के मंदिर में किसने क्या चढ़ाया ये खबरे आप अक्सर देखते रहते होंगें । जिनका पहले ही बड़ा नाम और हस्ती है वो भी "मैं " के मोह से नहीं छूट पाते । जब वो तिरुपति बाला जी को सोना चांदी चढ़ाते हैं तो टीवी कैमरे उन्हें फॉलो करते हैं । इस दान और चढ़ावे को गुप्त भी रखा जा सकता है ।
कहते हैं दांए हाथ से क्या दान किया ये बांए हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए ।
कहते हैं दांए हाथ से क्या दान किया ये बांए हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंYes, I agree !
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खरा खरा लिख दिया आपने :-) और जगन्नाथ रहस्य पढने की उत्कंठा भी जगा दी
जवाब देंहटाएंइन सारे दिखावे के प्रति मानवीय मानसिकता है। भारत में प्रत्येक व्यक्ति दान के माध्यम से पुण्य कमाना चाहता है। उसे एक ही बात पता है कि दान करूंगा तो पुण्य मिलेगा। इसलिए यह सब हो रहा है। जिस दिन उसे समझ आ जाएगा कि केवल दिखावे के लिए दान करना पुण्य नहीं है उस दिन शायद यह कम हो।
जवाब देंहटाएंअच्छी खबर ली है आपने।
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चित्रावलियाँ।
कसौटी पर शिखा वार्ष्णेय..
कहते हैं दांए हाथ से क्या दान किया ये बांए हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंसौ बातों की एक बात कह दी…………और मै का भाव ही हर विनाश की जड है और जिस दिन ये मिट जाता है उस दिन से जीव आनन्दमय हो जाता है।
आजकल दान प्रसिद्धि व्यवसाय का अंग हो गया है।
जवाब देंहटाएंजब तक मैं और मेरा का भाव रहेगा तब तक भक्ति खरी नहीं हो सकती ।....बहुत सच कहा है. आजकल दान और भक्ति भी नाम पाने का साधन हो गयी हैं..बहुत सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएं' आज धर्म के नाम पर आडंबर और दिखावा ज्यादा है । ' आप ने ठीक कहा । वरना सच्ची भक्ति व पूजा तो अहं व अभिमान रहित समर्पण है। कहते हैं न - जानत तुम्हहि, तुम्हहि होइ जाई। बहुत सुन्दर प्रस्तुति सर्जना जी ।
जवाब देंहटाएंaajkal to bina dhong aadamber ke kuch nahi ho sakta .,,bhagvan ke naam ka bhi vyapar ho raha hai.....
जवाब देंहटाएंश्रृद्धा से किया गया दान/ दिखावे के लिए किया गया दान/कुछ पाने के लिए किया गया.....कुछ तो अंतर होना ही है...बड़ी कड़वी सच्चाई बखान दी आपने....पसंद आया आलेख.
जवाब देंहटाएंवस्तुतः जो अधर्म और पाखंड इन तथाकथित धार्मिक आयोजनों मे होता है वह निंदनीय है।
जवाब देंहटाएंजैसे ही आसमान पे देखा हिलाले-ईद.
जवाब देंहटाएंदुनिया ख़ुशी से झूम उठी है,मनाले ईद.
ईद मुबारक
"दान का बखान नहीं होना चाहिए"
जवाब देंहटाएंपर ये बात उन के लिए है जो इसे समझना चाहते हों
बाकी दुनिया अपनी रफ्तार से चलती रही है, चलती रहेगी
तन मन धन सब है तेरा,स्वामी सब कुछ है तेरा
जवाब देंहटाएंतेरा तुझको अर्पण ,क्या लागे मेरा.
घर घर में 'ओम् जय जगदीश हरे' की यह आरती
गाई जाती है.'सुन्दर काण्ड', 'अखंड रामायण',देवी जागरण'
और न जाने क्या क्या पाठ और आयोजन किये जाते रहते हैं.
पर इनके 'सार तत्व' को कोई जानना और ग्रहण करना नहीं चाहता. केवल अपना नाम कराने का ही उद्देश्य ही मन में रहता है.
काश! आपके ये शब्द -"-मोहे कपट , छल छिद्र ना भावा , सरल स्वभाव सो मोही पावा "। समझ पायें हम सभी.
जगन्नाथ जी के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा.
समय मिलने पर आपसे इसपर और भी बात करना चाहूँगा.
आपके लेख में त्रुटियाँ (छिद्र) खोजने की बहुत कोशिश की.
अभी तक तो कोई भी हाथ नहीं लगी.वरन,बार बार पढ़ने पर अनमोल शान्ति रुपी रत्न को ही पाया.सर्जना जी आपका यह अनुपम 'सर्जन' यदि समझ लिया जाये तो 'तारनहार'लग रहा है मुझे.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार आपका.
आप भी किस सतयुग की बात कर रही है मैडम? अब हम परम्परावादी, संस्कारी भारतीय सॉरी आई मीन बैकवर्ड ट्रेडिशनल हिन्दुस्तानी की तरह नहीं है. अब हम फॉरवर्ड, साइंटिफिक और रेशनल इंडियन हो गए है जो दान में भी लाभ हानि देखता है.
जवाब देंहटाएंयदि मीडिया और ब्लॉग जगत में अन्ना हजारे के समाचारों की एकरसता से ऊब गए हों तो कृपया मन को झकझोरने वाले मौलिक, विचारोत्तेजक आलेख हेतु पढ़ें
अन्ना हजारे के बहाने ...... आत्म मंथन http://sachin-why-bharat-ratna.blogspot.com/2011/08/blog-post_24.html
सुन्दर लिखा है , अच्छा लगा आपको पढ़ना.
जवाब देंहटाएंक्या मिलिए ऐसे लोगों से,
जवाब देंहटाएंजिनकी फितरत छिपी रहे,
नकली चेहरा सामने आए,
असली सूरत छिपी रहे....
जय हिंद...
बहुत सुंदर,
जवाब देंहटाएंअब तो दान का भी लोग हिसाब रखते हैं, रिटर्न की उम्मीद में..
कई धार्मिक स्थान पर देखा है कि एक बैंच भी किसी ने बनवाई है तो उस पर बनवाने वाले का नाम लिखा होता है ... लोग शोहरत के लिए दान करते हैं ..आज कल दिखावे में यह भी शामिल हो गया है
जवाब देंहटाएं