शुक्रवार, जून 19

 योग साधना – केवल योगासन नहीं तन- मन,आत्मा का शोधन है
तन,मन  और आत्मा में तालमेल बनाए रखने की भारत की प्राचीन  विधा योग का हमारी संस्कृति में एक विशेष स्थान है । हमारे ऋषि मुनियों ने तन के सूक्ष्म अध्ययन के साथ साथ मन और आत्मा का भी गहन अध्ययन किया । उन्होनें जीवन की जो शैली विकसित की उसमें मनुष्य को एक सर्वश्रेष्ठ जीव बनाने की पूरी विधि का खाका तैयार किया । तन से मन की, मन  से आत्मा की सूक्ष्म यात्रा का माध्यम बना योग । योग तन को स्वस्थ रखने, चंचल मन को साधने और आत्मा के परमात्मा से मिलन की एक अनमोल विधा है । हमारे देश में एक से बढ़ कर एक परम और सिद्ध योगी हुए हैं । योग ने विदेशियों को भी अपनी और आकर्षित किया है ।  आपा धापी की जीवन शैली में योग ने एक बार फिर से अपना विशेष स्थान बना लिया है । सबसे पहले जानते हैं योग है क्या ।
योग के ये आसन साधारण रूप से हमें शरीर को स्वस्थ रखने की कुछ एक्सरसाइज़  जैसी ही लगती हैं । हर आसन का हमारे शरीर के किसी एक अंग विशेष को शक्ति देने और शरीर को निरोग रखने की एक शारीरिक क्रिया ही लगती है । लेकिन ये केवल शारीरिक व्यायाम नहीं है  बल्कि ये हमारे शरीर के तमो और रजो गुणों को दूर करके हमें सतो गुणों की ओर ले जाने की एक विधा है । यदि हम मोटे शब्दों में कहे तो ये स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर जाना है । साधारण शब्दों में कहें तो   चित्त की वृतियों को बाहर से भीतर की ओर मोड़ना । हमारी इंद्रियों को विषयों में डूबे रहना इतना अच्छा लगता है कि हम अपने चित्त को बाहर की ओर ही भगाते चले जाते हैं । जिसके कारण हमारे भीतर तमो गुण और रजो गुण बढ़ते चले जाते हैं । और जब हम अपनी इंद्रियों को वश में करके मन पर विजय पाकर अपने भीतर की ओर मुड़ते हैं तो सतो गुणों की ओर जाते हैं । योग चित्त की वृतियों को रोकना है ।जिसने चित्त पर विजय पा ली वो  दुनिया पर विजय पा लेता है । इसीलिए   हमारी सभी श्रुतियों और स्मृतियों मे योग की महिमा का बखान किया गया है  ।
हज़ारों वर्ष पुरानी योग विधा को तीन भागों में बांटा गया है ज्ञानयोग . उपासना योग और कर्म योग । किताबें पढ़ लेना सांसारिक ज्ञान- विज्ञान में महारत पा लेना ज्ञान योग नहीं है बल्कि तीनों गुणों -तमो गुण- रजोगुण और सतोगुण और उनसे बने सभी पदार्थों से परे स्थूल  और सूक्ष्म , इंद्रियों , मन , अहंकार और चित्त से परे गुणातीत परमात्मा तत्व को पूर्णरूप से जान लेना ज्ञानयोग है । ज्ञान योग तक पहुंचने के लिए उपासना योग के रास्ते से हो कर जाना पड़ता है । चित्त की वृतियों को सब ओर से हटाकर केवल एक लक्ष्य पर ठहराने का नाम उपासना योग है । यहां ये साफ करना ज़रूरी है कि उपासना भी दो तरह की है सासंरिक और आध्यात्मिक । सांसारिक कामनाओं के लिए की गयी उपासना ज्ञानयोग मार्ग पर ले जाने वाली उपासना से अलग है ।
उपासना योग का आधार कर्मयोग है बिना कर्मयोग के उपासना योग को साधा नहीं जा सकता । 24 घंटे  दुनियावी काम में लगे रहना कर्मयोग नहीं है ।  कर्मयोग की व्याख्या भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में बहुत सुंदर तरीके से की है । उनके अनुसार कर्मयोगी वो है जो ---- 
 “कर्मों को  ईश्वर के समर्पण करके और आसक्ति को छोड़ कर जो कर्म करता है वह पानी में पद्मपत्र के समान पाप से लिप्त नहीं होता ।। योगी फल की कामना और कर्तापन के अभिमान को छोड़ कर अन्त:करण की शुद्धि के लिए केवल शरीर इंद्रियों और बुद्धि से काम करते हैं ।। योगी  कर्म के फल को त्याग कर परमात्म प्राप्ति रूप शांति को लाभ करते हैं । अयोगी कामना के अधीन होकर फल में आसक्त हुआ बंधता है । ---- श्रीमद्भगवद्गीता
इसलिए योग केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है ये एक गहन विषय है जिसकी यात्रा भले ही शरीर से आरंभ होती है लेकिन लक्ष्य मन को साधना , चित्त को निर्मल करना है । ये मार्ग कर्मयोग उपासना योग भक्तियोग से होता हुआ ज्ञान योग की ओर जाता है । मन को उपासना में लगाना ही सबसे कठिन है क्योंकि मन बाहर की ओर भागता है । और योग मन पर लगाम कसता है
कर्मयोग उपासना योग भक्तियोग और ज्ञानयोग केवल मनुष्य ही पा सकते हैं । देह धारी ही ये सब योग कर सकते हैं । जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस में लिखा है ----बड़े भाग मानुष तन पावा । बहुत सत्कर्मों के बाद ही मनुष्य के रूप में आत्मा धरती पर आती है । और नर से नारायण बनने का देह एकमात्र माध्यम है । भारत के महान मनीषियों ने योग के माध्यम से ही अनेक सिद्धियां प्राप्त की । दुनिया को जीने की एक नयी राह दिखायी । पश्चिमी देश  भौतिक रूप में आज चाहे कितनी भी उंचाई पर पहुंच जाए । आध्यात्मिक ज्ञान के लिए वो भारत की ओर ही देखते आए हैं  । उसने भी योग साधना और जप तप को अपनाया है । ये योग विधा का सार्वभौमिक रूप ही है जिसके कारण आज अतंरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के योग को आधिकारिक रूप से  मान्यता प्राप्त हो गयी है । हमारे ऋषि मुनियों ने तो आज से हज़ारों साल पहले ही ये साफ कर दिया था कि योग सारे संप्रदायों और मत --मतांतरों के पक्षपात और वाद विवाद से रहित सार्वभौम धर्म है । जो तत्व का ज्ञान स्वयं अनुभव से प्राप्त करना सिखाता है और मनुष्य को उसके अंतिम ध्येय तक पहुंचाता है ।
                        सर्जना शर्मा 

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