मंगलवार, जून 2

कबीर को जैसा मैनें पाया


कबीर से हमारा परिचय स्कूल के दिनों में करा दिया जाता है . कबीर के दोहे हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक का एक चैप्टर रहता है । स्कूल के दिनों में ना तो इतनी समझ होती है बस दोहे पढ़ लिए और रट लिए । फिर आस पास बड़े लोगों को कईं बार कबीर के दोहे कहते सुना . लेकिन जैसे जैसे बड़े होते गए कबीर का मतलब समझ आने लगा । कबीर जैसी साफगोई , धर्म के ठेकेदारों और पाखंड की कड़ी आलोचना करने की हिम्मत बिरले लोगों में होती है । 

कबीर जिन परिस्थितियों में पले बढ़े उसने भी उन्हें नि़डर और साहसी बनाया . माता पिता कौन ? किस घर में पैदा हुए पता नहीं ? तालाब की सीढ़ियों पर एक जुलाहे को नवजात शिशु मिला दया, करूणा और ममतावश उठा कर गले लगा लिया और अपनी संतान की तरह पाला । उस समय के समाज में जहां कुल गोत्र परिवार जाति धर्म बहुत मायने रखते थे कबीर के पास ये कुछ भी नहीं था । जुलाहे ने पाला पोसा तो इसलिए जुलाहे ही कहलाए । जिस घऱ में पले बढे उस घर के परंपरागत पेशे को अपनाया । लेकिन बुद्धि और गुण बड़े बड़े कुलीन विद्वानों जैसे । उस समय के सामाजिक परिवेश में कुलीन विद्वान समाज ये कैसे स्वीकार कर पाता कि एक जुलाहे का बेटा ज्ञान में उनके समकक्ष है । कबीर भी शायद ये समझते थे कि वो समाज उन्हें नहीं अपनाएगा ।

 मुझे लगता है उन्होने कभी उस आभिजात्य समाज का हिस्सा बनने का प्रयास भी नहीं किया होगा । अपनी कुटिया में अपने ताने बाने में लगे रहते थे । और कर्मकांडी धर्म से उन्होने किनार कर लिया । लेकिन कर्मकांड से किनारा करने का अर्थ ये कतई नहीं है कि उन्होनें परम पिता की सत्ता को नकारा उन्होनें ईश्वर के अस्तित्व को नकारा । उन्होनें साधना की अपने तन मन और बुद्धि को निर्मल किया । धर्म का असली मर्म समझा और आत्मा के परमात्मा से मिलन की राह पकड़ी । शायद बहुत कम लोग जानते होंगें मुझे भी अभी तक नहीं पता था कि कबीर नाथ संप्रदाय से दीक्षित थे । लेकिन उनका संन्यास दुनिया को छोड़ने वाला संन्यास नहीं था अपना कर्म करते हुए घर संसार की जिम्मेदारी निभाते हुए उन्होने भक्ति मार्ग की राह पकडे रखी । कबीर कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि परम ज्ञानी महात्मा थे । भले ही हम उन्हें एक जुलाहा एक कवि समझते रहे हों लेकिन ये तो बस बाहरी दिखावा था । उनके भीतर ज्ञान की अखंड जोत जलती थी । वो परम योगी थे उनके सातों चक्र जाग्रत थे । मूलाधार से सहस्त्राधार चक्र तक उन्होनें जो व्याख्या की है वो किसी साधारण योगी या साधक के वश की बात नहीं है । 

भीनी भीनी चदरिया बुनते बुनते उन्होनें ईश्वर के साक्षात दर्शन भी किए होंगें ये मेरा अटल विश्वास है । वरना वो कैसे लिखते ---- "जब मैं था तब हरि नहीं जब हरि हैं तब मैं नहीं " । जब मैं यानि अहम, विकार , राग-द्वेष ,मोह- माया ममता मिट गयी तो आत्मा से मिलन हुआ और आत्मा ने परमात्मा से मिलवाया । और इतने बड़े तपस्वी ,योगी ,संत होने के बाद भी ना अपने नाम के साथ कोई विशेषण जोड़ा ना अपने पैर पूजवाए ना अपना आश्रम खोला । आज कितने ही ऐसे ढ़ोगीं है जो पैसे के बल पर महामंडलेश्वर की उपाधि खरीद लेते हैं । बड़े बड़े आश्रम खोल कर बैठे हैं दुनिया को लूट रहे हैं . लेकिन कबीर दुनिया के लिए ताने बाने पर काम करने वाले एक साधारण जुलाहे ही बने रहे । कहते हैं जिसका मन ईश्वर से मिल जाता है तो वो निडर हो जाता है उसे दुनिया में किसी का डर नहीं रहता । वो बिना लाग लपेट के सच्ची और खरी बात कहता है फिर चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा लगे । ऐसे ही थे कबीर आज कबीर जैसा कोई योगी संत कवि मिलना दुर्लभ है । कबीर मुझे बहुत प्रिय हैं उनके व्यक्तित्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया है । कबीर बनना ना उस समय आसान था ना आज है कबीर की जयंती पर मेरी उन्हें सच्चे मन से श्रद्धांजलि ।

नोट --- (ना मैं कोई नामी गिरामी लेखिका हूं ना ही साहित्यकार मेरी छोटी सी बुद्धि में कबीर को जैसा मैनें पाया वैसा लिखा इसलिए किसी साहित्यकार या लेखक को कोई आपत्ति हो या मुझसे सहमति ना हो तो माफ कर देना प्लीज़ )

4 टिप्‍पणियां:

  1. कबीर ने आध्यात्म के लिये वैराग्य को कर्मरत रहते अपनाया.
    आजकल के सन्तों के दिखावे ढकोसले पर आपके विचारों से सहमति.

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (04-06-2015) को "हम भारतीयों का डी एन ए - दिल का अजीब रिश्ता" (चर्चा अंक-1996) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    जवाब देंहटाएं
  3. रूपचंद्र शास्त्री जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका दिल से आभार

    जवाब देंहटाएं
  4. जी वाणी गीत आप बिल्कुल सही कह रही हैं आज चोर उच्चके भी अखाड़ों को पैसे दे कर महामंडलेश्वर बन रहे हैं औऱ कबीर परम ज्ञानी होने के बाद भी दिखावे से दूर थे

    जवाब देंहटाएं